ये बहस अचानक शुरू नहीं हो गई। दशकों पहले जब राजनीतिक दलों के पास वोट बैंक के रूप में के धर्म, जाति के लोग हुआ करते थे. वोट सरक न जाए इसके लिए तमाम दल एवं सरकारें उनके लिए विशेष सुविधा प्रदान करती थी. इस वोट बैंक में हिंदू का कभी भी वरीयता नहीं दी गई। हिंदू धर्म, संस्कृति, पूजा-पाठ को संदेह की निगाहों से देखा जाता रहा. राजनीति में धर्म का प्रवेश सदा से रहा है। राजनीतिक दल कभी मुस्लिम तो कभी इसाई का नाम ले-लेकर अपने दांव-पेंच चलते रहे. धीरे-धीरे हिंदू धर्म के जागरूक लोगों में अपने धर्म के प्रति सुधारवादी रवैये का जन्म हुआ। इसके चलते लोगों में राम, हनुमान, सीता, दुर्गा, लक्ष्मी, विष्णु, गणेश आदि-आदि देवी-देवताओं के प्रति आस्था से अधिक आस्था उत्पन्न हुई. धर्म की राजनीती कर रहे दलों को ये बात गंवारा नही हुई और किसी न किसी बहने हिन्दुओं को सांप्रदायिक घोषित करने का कुप्रयास होने लगा। इसी का परिणाम ये होता है की किसी भी धर्म के विरुद्ध कोई घटना होती है उसको हिंदू धर्म से जोड़ कर देखा जाने लगता है। तमाम सारे दल हिन्दुओं को तमाम दंगों का दोषी मानते हैं। गुजरात दंगों की बात हमेशा इसी रूप में होती आई है.
ऐसा करना सही नहीं है. चाहे गुजरात में लोग मारे गए हों अथवा गोधरा में सब के सब पहले इन्सान थे. यदि हमें दंगों में मुसलमानों के मरने का दुःख होता है तो गोधरा में मरने वाले हिन्दुओं का भी दुःख होना चाहिए. वे भी किसी माँ के लाल थे, किसी लाल के माता-पिता थे, किसी के भाई-बहिन थे. पर ऐसा नही होता है, क्यों? क्या महज इसलिए किवे सब हिंदू थे. क्या हिंदू की मौत पर दुःख जाताना भी सांप्रदायिक है? क्या अपने आराध्य श्री राम की तस्वीर लगना, उनका जयकारा लगना भी सांप्रदायिक है? क्या हिंदू होना ही सांप्रदायिक है?ये सवाल इसलिए की अब फ़िर चुनाव की आहात देख कर राजनीतिक दलों ने अपने पास हिंदू विरोध में गिराने शुरू कर दिए हैं. हिंदू धर्म के क्रिया-कलापों को देखने के बाद क्या उसका साम्प्रदायिकता से लेना-देना दीखता है? आपको क्या लगता है कि हिंदू वाकई सांप्रदायिक है?