Wednesday, July 2, 2008
संकीर्णता के समक्ष समर्पण
संकीर्णता के समक्ष समर्पण जम्मू कश्मीर सरकार ने कश्मीर घाटी में दस दिन से जारी कथित संकट का समाधान निकालने के लिए नाम पर श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई 39.88 एकड़ भूमि का आवंटन आदेश रद्द कर पाकिस्तानपरस्त अलगाववादियों और कट्टर संप्रदायिक तत्वों के समक्ष नतमस्तक होने की औपचारिकता भी पूरी कर दी। यह शर्मनाक है और इसकी दूसरी मिसाल मिलना कठिन है। अब तो बस यही शेष रह गया है कि कश्मीर घाटी में सक्रिय राष्ट्रविरोधी राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक संगठनों की उन मांगों को भी पूरा कर दिया जाए जो वस्तुत: पाकिस्तान के एजेंडे में शामिल हैं। ध्यान रहे कि इसके पहले राज्यपाल को यह पत्र लिखने के लिए विवश किया गया था कि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को उक्त भूमि की आवश्यकता ही नहीं है। देश के बहुसंख्यक समाज को उद्वेलित और विचलित करने वाले ये दोनों फैसले बिना केंद्र सरकार की सहमति के नहीं हो सकते, खासकर यह देखते हुए कि जम्मू-कश्मीर में उसी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार है जो केंद्रीय सत्ता की बागडोर संभाले है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई भूमि का आवंटन रद्द करने के फैसले की देश भर में प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। देश यह जानना चाहेगा कि हिंदुओं को अमरनाथ तीर्थ यात्रा के दौरान विश्राम करने की सुविधा देने से कश्मीर घाटी में कौन सा पहाड़ टूट रहा था? यदि कश्मीर घाटी शेष देश के अन्य धर्मावलंबियों को चंद दिन के लिए अस्थायी रूप से भी आश्रय नहीं दे सकती तो फिर वह किस कश्मीरियत की बात करती है? कश्मीर घाटी के स्वयंभू प्रतिनिधि कितने असहिष्णु, अमानवीय और संवेदनशून्य हैं, इसकी मिसाल है श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित की गई भूमि का विरोध। इस विरोध के समक्ष समर्पण करके कुल मिलाकर असहिष्णुता को ही बढ़ावा दिया गया है। जम्मू-कश्मीर सरकार के भूमि आवंटन आदेश रद्द करने के फैसले में सीधे-सीधे यह संदेश निहित है कि राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता को भी उन तत्वों की कहीं अधिक परवाह है जो मन, वचन और कर्म से क्षुद्र, संकीर्ण तथा सांप्रदायिक हैं और जो यह मान बैठे हैं कि कश्मीरियत में केवल कश्मीर घाटी के मुस्लिम समुदाय के लिए ही स्थान हो सकता है। इस फैसले ने कश्मीरियत का कथित भाईचारे वाला नकाब उलट देने के साथ पंथनिरपेक्षता के चेहरे को और अधिक विकृत कर दिया है। अब इसमें तनिक भी संशय नहीं कि हमारे वर्तमान नीति-नियंता ऐसी पंथनिरपेक्षता के पक्षधर हैं जिसमें अलग-अलग वर्गो के प्रति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण जानबूझकर अपनाया जाता है और ऐसा करते समय यह सुनिश्चित भी किया जाता है कि समुदाय विशेष का तुष्टीकरण अवश्य हो। इसके नतीजे घातक होंगे। अब कश्मीर घाटी में ही नहीं, देश के अन्य अनेक हिस्सों में उन ताकतों का दुस्साहस बढ़ेगा जो मनमानी करना चाहती हैं। इस पर गौर किया जाना आवश्यक है कि कश्मीर घाटी में जो विवाद खड़ा किया उस पर देश का वह तबका किस तरह मौन साधे है जो न केवल खुद को पंथनिरपेक्ष बताता है, बल्कि दूसरों के पंथनिरपेक्ष होने या न होने का प्रमाणपत्र भी बांटता है। इस तबके ने अपने मौन से यह सिद्ध कर दिया कि वोटों के लोभ में वह अलगाववादियों का भी साथ दे सकता है। अनिवार्य शिक्षा का कानून पंजाब के मुख्यमंत्री का यह बयान स्वागत योग्य है कि जो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे उनके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए सरकार जल्द कानून बनाएगी। पंजाब में जितनी कम संख्या में बच्चे स्कूल जाते हैं और जितनी बड़ी संख्या पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की है उसे देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि बच्चों को स्कूल आने के लिए आकर्षित किया जाए और अभिभावकों पर भी इसके लिए दबाव बनाया जाए। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश की पिछली सरकार ने पांच वर्षो में सभी बच्चों को स्कूल पहुंचाने का लक्ष्य रखा था जिसे उसने हासिल भी किया। हालांकि केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ने पढ़ाई के प्रति बच्चों को आकर्षित करने के लिए अनेक योजनाएं चला रखी हैं किंतु फिर भी शतप्रतिशत बच्चे अभी स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। गरीब बच्चों के लिए जो मिड-डे मील स्कीम लागू की गई है वह भी पूरी तरह सफल नहीं हो पा रही है। शतप्रतिशत बच्चों को स्कूल तक ले जाने का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जब इसके लिए चौतरफा प्रयास किए जाएं। सरकार स्कूलों की दशा सुधारे तथा ऐसी व्यवस्था करे जिससे कि लोगों को सस्ती शिक्षा उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त लोगों में जागरूकता लाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए। सामान्यतया लोग शिक्षा को रोजगार से जोड़ कर ही देखते हैं, अत: रोजगार के नए अवसर भी सृजित करने होंगे। लोग जब पढ़ लिख कर बेरोजगार घूमते हैं तो उसका कुप्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। इसके लिए तकनीकी शिक्षा तथा रोजगारपरक प्रशिक्षण को अधिकाधिक चालू करना होगा। प्राथमिक स्तर पर बच्चों के पाठ्यक्रम में सुधार कर उसे ऐसा बनाया जाना चाहिए जो निजी स्कूलों तथा केंद्रीय स्कूलों के पाठ्यक्रम के बराबर हो। यह ठीक है कि कानून के भय से कुछ लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगेंगे किंतु स्कूल जाने के बावजूद यदि बच्चे अनपढ़ रह जाएं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में सुधार करने के बाद ही कोई कानूनी उपचार कारगर साबित हो सकता है। मात्र कानून बना देने भर से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। इसके लिए स्वयंसेवी संगठनों को भी आगे आना होगा और लोगों को शिक्षा के महत्व के बारे में जागरूक करना होगा।