Tuesday, July 8, 2008

वेदों का रचनाकाल


वेद, स्मरणातीत अतीत से परम ज्ञान को व्यक्त करनेवाली देववाणी के ग्रंथ तथा हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति में जो कुछ भी उच्चतम् तथा गम्भीरतम् है, उसके आदि ड्डोत माने जाते हैं। इतर सभ्यता, संस्कृति और सम्प्रदाय की कोई भी कृति इसके समकक्ष नहीं ठहरती। हिंदू सभ्यता, संस्कृति, धर्म, साहित्यादि के बीज इसके अन्दर समाहित हैं, आज भी उक्त क्षेत्रें के लिये यह उपजीव्य है। इस तथ्य को भारत के ही नहीं बल्कि दूसरे देशों के कई विद्वान् भी प्रकट कर चुके हैं।

वेदों की रचना कब हुई? हिंदू धर्म में वेदों को 'अपौरुषेय' कहा गया है अर्थात् जिसकी रचना किसी पुरुष-विशेष द्वारा नहीं हुई। इसका तात्पर्य यह है कि वैदिक ट्टषि वेद-मंत्रें के व्यक्तिगत रचयिता नहीं थे, बल्कि वे वेद-मंत्रें के 'द्रष्टा' थे। यास्कराचार्य ने भी स्पष्ट लिखा है- 'ट्टषयों मंत्रद्रष्टारा:। ट्टषि दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यव: । तद् स्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यामर्षत्।' (निरुक्त, 2.11) अर्थात्, औपमन्यव आचार्य का भी यही मत है कि वेदों में प्रयुक्त स्तुति आदि विषयक मंत्रें के वास्तविक अर्थ का साक्षात्कार करनेवाले को ही 'ट्टषि' के नाम से पुकारा जाता है। तपस्या या धयान करते हुए जो इन्हें स्वयंभू नित्यवेद के अर्थ का ज्ञान हुआ, इसलिए वे 'ट्टषि' कहलाए और वेदमंत्रें का रहस्य-सहित अर्थदर्शन ही उनका ट्टषित्व है। तैत्तिरीय आरण्यक की व्याख्या में भट्ट भास्कर ने लिखा है 'अथ नम ट्टषिभ्य मंत्रकृदिभ्यो द्रष्टुभ्य:। दर्शनमेव कर्तव्यम्।' (मै. स., भाग 3) अर्थात्, ट्टषियों का मंत्रद्रष्टा होना ही उनका मंत्रकर्तृत्व है। मनुस्मृति की व्याख्या में कुलार्क भट्ट ने लिखा है 'ब्रह्माद्या ट्टषिपरियन्ता स्मारका:, न कारका:।' अर्थात् ब्रह्मा से लेकर आज तक सभी ट्टषि वेद-मंत्रें को स्मरण रखनेवाले व पढ़ने-पढ़ानेवाले रहे हैं; कोई भी उनका कर्ता, लेखक या रचयिता नहीं है।

किंतु अधिकांश पश्चिमी और पश्चिम से प्रेरित भारतीय 'विद्वान्' यह सब नहीं मानते। उनका कहना है कि 1500 ईसा पूर्व में 'आर्य' जाति के लोग मधय एशिया से पंजाब में आकर बसे, उन्हीं में से कुछ लोगों ने समय-समय पर वेद-मंत्रें की रचना की। इनके ईसाई संप्रदाय के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति 23 अक्टूबर, 4004 ई. पू. को हुई थी। इसलिए वे सारी घटनाओं को खींचकर चार-पांच हजार वर्ष के भीतर ही सिध्द करना चाहते हैं। अर्थात् संसार के इतिहास में जो भी घटना घटी, वह चार-पांच हजार वर्ष के भीतर। उससे पूर्व की सारी घटनाओं को 'पुराणों की कल्पना' और 'माइथोलोजी' कहकर हवा में उड़ाया जा रहा है।

वेदों के काल-निर्धारण के संबंध में पाश्चात्य संस्कृतज्ञों में सर्वप्रथम प्रफेडरिक मैक्समूलर (1823-1900) ने प्रयास किया। इस कुख्यात जर्मन संस्कृतज्ञ ने 1859 में अपने ग्रंथ प्राचीन संस्कृत साहित्य का इतिहास, में समस्त वैदिक साहित्य को तीन क्रमिक कालखण्डों में रखा। पहला, 'मंत्रकाल' जिसमें मंत्रें की रचना हुई; दूसरा, 'संहिताकाल' जिसमें मंत्रें का संग्रह और संहिताकरण हुआ और तीसरा 'ब्राह्मणकाल' जिसमें बाद का समस्त वैदिक गद्य साहित्य अस्तित्व में आया। इन तीनों कालों के लिये मैक्समूलर ने बड़ी ही उदारता से समान रूप से तीन-तीन सौ वर्षो की अवधि निर्धारित की और वैदिक युग के तुरंत बाद के सूत्रकाल को 600 ई. पू. से प्रारम्भ मानकर उल्टी गिनती करते हुए मंत्रें के रचनाकाल अर्थात् मुख्यत: ट्टग्वेद को 1200-1000 ई. पू. के मधय रख दिया। बाद में जब उसके समकालीन कई राष्ट्रवादी विद्वानों ने उसके इस आकलन की तीखी आलोचना की तब 1891 ई. में जिफोर्ड व्याख्यानमाला में उसने घोषणा की ष्मजीमत जीम टमकपब ीलउदे ूमतम बवउचवेमक 1000 वत 1500 वत 2000 वत 3000 लमंते ठब्ए दव चवूमत वद मंतजी ूपसस मअमत कमजमतउपदमण्ष् अर्थात्, 'वैदिक मंत्र कब रचे गए, 1000 या 1500 या 2000 या 3000 ई. पू. में? संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो इसका समय कभी निश्चित कर सके।''

परन्तु, मैक्समूलर की इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति के बावजूद उसके पुराने आकलन (1200-1000 ई. पू.) को अधिकांश पश्चिमी और उनसे प्रेरित भारतीय 'विद्वानों' ने 'अन्तिम निर्णय'-जैसी मान्यता प्रदान कर दी। मोरिज विंटरनिट्ज (1863-1937) के शब्दों में'यह परिकल्पनात्मक और पूर्णत: मनमाना तिथि-निर्धारण न केवल स्वीकृत हो गया, अपितु इसे एक वैज्ञानक विधि से सिध्द किए गए तथ्य का गौरव एवं चरित्र प्रदान किया गया।' इस आश्चर्य सी लगनेवाली बात को सम्भव बनाया 'आर्य आक्रमण सिध्दांत' ने, जिसके जादुई प्रभाव से स्वामी दयानन्द सरस्वती ( 1824-1883) और लोकमान्य तिलक (1856-1920) सहित अनेक भारतीय विद्वान भ्रमित थे। 1920 ई. में जब हड़प्पा सभ्यता प्रकाश में आई तो उसे आर्यों द्वारा विनष्ट मान लिया गया। उस समय हड़प्पा सभ्यता का अन्त 1500 ई. पू. माना जा रहा था। अत: मैक्समूलर के आकलन में थोड़ा-सा संशोधन करते हुए ट्टग्वेद को 1500-1200 ई. पू. के मधय रचित मान लिया गया। आधुनिक 'विद्वानों' में यही मत बहुत प्रसिध्द है।

लोकमान्य तिलक ने अपने ग्रंथ श्व्तपवदश् (ओरियन, 1893 ई.) में ज्योतिषशास्त्र के आधार पाश्चात्य मत का प्रमाणपूर्ण खण्डन अवश्य किया है किन्तु 'श्वान' नक्षत्र को लेकर गणना करने के कारण उन्हें भी भ्रम हुआ है। उन्होंने 'श्वान' को एक नक्षत्र माना है, परन्तु श्वान तो दो नक्षत्र हैं। ज्योतिषशास्त्र में भी उन्हें सदा दो ही बताया गया है।

'एषा ह सांवत्सरस्य प्रथमारार्त्रित्फाल्गुनी पौर्णमासी।' इस मंत्र में संवत्सर (वर्ष) का प्रारम्भ फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा से माना गया है। तिलक ने सप्रमाण सिध्द किया है कि वैदिक संवत्सर वसन्त सम्पात से प्रारम्भ होता है। गणना करने पर फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को वसन्त सम्पात लगभग 22,000 वर्ष पूर्व आता है, क्योंकि क्रान्तिवृत्त की एक परिक्रमा करने में 26,000 वर्ष लगते हैं। भूगर्भशास्त्र के अनुसार उत्तरी ध्रुव में प्रत्येक 10,000 वर्ष पर पृथ्वी की केन्द्रयुति होने से हिमपात होता है। प्रथम हिमपात खरबों वर्ष पूर्व हुआ होगा। वेदों में प्रथम हिमपात का वर्णन है। तिलक ने यह स्वीकार किया है कि ट्टग्वेद के देवता ट्टषि, सूक्त सभी कम से कम प्रथम हिमपात के पूर्व के हैं, बाद के नहीं। अविनाशचन्द्र दास ने अपने ट्टग्वैदिक इंडिया नामक ग्रन्थ में भूगर्भशास्त्र के आधार पर वेदों का रचनाकाल 25,000-50,000 ई. पू. माना है। नारायणराव भवानराव पावगी ने अपनी पुस्तकों 1. अार्यावर्तातील आर्याची जन्मभूमि (आर्यावर्त: आर्यों की आदि जन्मभूमि) और 2. द वैदिक फादर्स आफ जिओलाजी में भूगर्भशास्त्र के आधार पर वेदों का रचनाकाल 2.40 लाख वर्ष पूर्व माना है। डा. कृष्णवल्लभ पालीवाल (जन्म-1927 ई.) ने पौराणिक कालगणना के आधार पर वेदों को 1, 97, 29, 49, 109 (लगभग दो अरब) वर्ष प्राचीन सिध्द किया है। आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'वैदिक युग और आदिमानव' में भूगर्भ विज्ञान, ज्योतिष और वैदिक वांगमय के आधार पर वेदों का रचनाकाल मानव-सृष्टि के साथ माना है।

किन्तु वेदों में मनु की जल-प्रलय की कथा का कोई उल्लेख नहीं है। पुराणों में ही यह वर्णन है। अतएव वेद मानव-सृष्टि से भी प्राचीन हैं, यह सिध्द है। ब्रह्मा की प्रत्येक रात्रि में प्रलय होती है, जिसकी समाप्ति के बाद अलिखित वेदों को व्यास परम्परा द्वारा पुन: वर्गबध्द किया जाता है और कण्ठगान के माधयम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संप्रेषित किया जाता है। इसलिये वेदों को 'श्रुति' भी कहते हैं अर्थात् सुनने-सुनाने का ग्रन्थ। ब्रह्मा की प्रत्येक सृष्टि (कल्प) के प्रत्येक मन्वन्तर में हर चतुर्युग के द्वापर में व्यास पीठ पर आसीन ट्टषि वेदों का संकलन-संपादन करते हैं। उनमें धन, जटादि अनेक पाठों की व्यवस्था करके उन्हें ज्यों का त्यों बनाये रखते हैं। अंतिम जलप्रलय लगभग 12 करोड़ वर्ष पूर्व वैवस्वत मनु के समय में हुआ था और प्रलयकाल की समाप्ति के बाद अब तक 28 द्वापरयुग बीत चुके हैं। विष्णु महापुराण (2.3.11-21) में इन प्रत्येक द्वापरयुग के वेदव्यासों के नाम गिनाए गए हैं। इस सूची के अनुसार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के प्रथम वेदव्यास स्वयं भगवान् ब्रह्मा थे। अन्तिम वेदव्यास महर्षि कृष्णद्वैपायन ने कहा है- 'कल्पनां बहुकाटयश्च समतीता हि भारत। आभूतसम्प्लावश्चैव बहुकाटयोतिचक्रमु:॥' (महाभारत, सभा पर्व, अधयाय 38, दाक्षिणात्य पाठ) अर्थात्, अब तक कई करोड़ कल्प बीत चुके हैं और कितने ही प्रलयकाल भी बीत चुके हैं।

कहने का तात्पर्य है कि न मालूम कितने करोड़ बार सृष्टि हुई है और कितने करोड़-अरब बार वेदों का संकलन-संपादन हुआ है। ऐसी करोड़ों सृष्टि पूर्व का, अर्थात् प्रथम सृष्टि का वर्णन वेदों में है। अतएव वेदों के काल की चर्चा करना बाल-बुध्दि का प्रयत्न है। वेद अनादि और नित्य हैं, काल की परिधि से परे।

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