Wednesday, July 2, 2008

हिंदू धर्म की कुछ सामान्य विशेषताएँ


हिंदू धर्म का कोई संस्थापक नहीं है। जैसा कि हम देख चुके हैं, इसने अनेक सदियों में विभिन्न मूलों के अनेक जनगण के विश्वासों से स्वरूप ग्रहण किया और भारत के ऐतिहासिक विकास के साथ घनिष्ठ और सशक्त रूप से संबद्ध हो गया। इसी से अन्य धर्मों को बिना किसी हठधर्मिता के देख पाने की और न केवल उनको बल्कि उनके 'भटकावों और अपधार्मिक विचारों' तक को स्वयं अपने आँचल में स्थान देने की उसकी प्रवृत्ति का स्पष्टीकरण मिलता है।

इस प्रकार उसने 'अन्य देवताओं', 'अन्य पैगंबरों' और 'अन्य मार्गों' को इस शिक्षा के साथ अकसर स्वीकार किया है कि भगवान बुनियादी रूप से एक और सदा वही हैं, फिर चाहे उनको कोई भी नाम क्यों न दिया जाए। सुप्रसिद्ध हिंदू दार्शनिक कुमारस्वामी ने कहा था- 'किसी चीज को कोई नाम देने का अर्थ यह नहीं कि आपने उसको अपना बना लिया है या उसकी व्याख्या कर ली अधिकांश अहिंदुओं के लिए 'भगवान' ब्रह्मांड के जनक और विश्वव्यापी नैतिक कानून के संस्थापक हैं। वही शब्द उसी अर्थ के साथ यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में इस्तेमाल किया जा सकता है। इन धर्मों में भगवान और मनुष्य के बीच एक 'संबंध' है। लेकिन ज्यों ही हम भारतीय चिंतन के संसार में प्रवेश करते हैं, स्थिति बदल जाती है।

यहाँ परम पुरुष या 'प्रथम कारण' की धारणा बिलकुल भिन्न है और विशेषकर उपनिषदों में उपलब्ध बौद्धिक बुलंदियों के क्षेत्र में जहाँ द्वैत और 'संबंधों' का अस्तित्व समाप्त हो जाता है और मुक्ति का अर्थ होता है परतत्व के साथ व्यक्ति की एकात्मकता या और बेहतर ढंग से कहा जाए तो व्यक्ति की देवत्व के सारतत्व से 'एकरूपता'।

इस वैचारिक ढाँचे में, परम पुरुष अपने को अनंत रूपों में अभिव्यक्त करता है जिनका केवल एक संघटना के रूप में ही अस्तित्व होता है और जो अनुभूति आश्रित अनुभव द्वारा सच्चे सारतत्व को ग्रहण कर पाने की अक्षमता और हमारी अविद्या की उपज होते हैं। यह अविद्या, जो माया को यानी एक भ्रम को जन्म देती है, वेदांत का मुख्य विषय है।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि माया की यह अवधारणा आधुनिक भौतिकी के कुछ विचारों से सशक्त रूप में पुष्ट होती है जिनके अनुसार पदार्थ का सूक्ष्मतम कण एक अणु के रूप में या ऊर्जा की एक लहर के रूप में प्रकट होता है और यह ज्ञान निर्भर करता है उस उपकरण पर जिससे उसको देखा जाता है।

परम पुरुष- एकमात्र सत्ता- अपने सारतत्व में परम शांति और नीरवता के रूप में स्थित है और रचनात्मक गतिविधि के रूप में प्रवाहमान भी है। वह जन्म और मृत्यु है, प्रकाश और अंधकार है। हर वस्तु उस अनन्य शक्ति, उस भ्रमजनक की माया है जिसके अत्यन्त सूक्ष्मतम भाग, अभिन्न अंग हम स्वयं हैं, जैसे कि अन्य सभी सृजित जीव हैं, उसी तरह जैसे किरणें स्वयं सूर्य का अभिन्न अंग हैं।

देवत्व के प्रति हिंदू दृष्टि का बुनियाद तत्व है प्रथम कारण का एक होना और विरोधों का तादात्म्य। एक-दूसरे के विपरीत कार्यों और स्थितियों की अनवरत और एक साथ अभिव्यक्ति देवत्व है। ऐसी शक्तियाँ और गुण देवत्व हैं जो एक-दूसरे का खंडन करते हैं और साथ ही एक संतुलन में अवस्थित हैं : स्वप्न और यथार्थ, संश्लेषण और विघटन, सृजन और विनाश। ब्रह्मांड के ऐसे दर्शन के ढाँचे के अंदर सृजन केवल पहला ही चरण है जिसमें अनिवार्यतः विनाश के बीज भी समाहित हैं और विनाश भी सृजन के हेतु से अधिक कुछ नहीं है।

इसका समानांतर मिलता है प्रकृति के वर्षचक्र में, जिसमें एक मौसम विशेष में प्रकृति में नया जीवन आता है तो अन्य मौसमों में वह वापस चला जाता है और फिर अगले मौसम में पुनर्जीवित हो जाता है। इस प्रकार भगवान ही सर्वस्व है। वह बीजातीत और अंतर्निहित दोनों ही है (विश्व के अंदर भी है और बाहर भी)। वह 'सुंदर' और 'कुरूप' है, 'नर' और 'नारी' है। ऐसा कोई गुण नहीं जो अपने समस्त पहलुओं में उसमें विद्यमान न हो।

तू ही नारी और तू ही नर है। तू ही युवक और तू ही युवती है। तू ही वह वृद्ध है जो लाठी टेकता डगमगाता चलता है। तू समस्त दिशाओं में देखने वाले अलग-अलग चेहरों के साथ जन्म लेता है।

तू ही गहन नील तितली है और लाल आँखों वाला हरा तोता है। तू गर्जनशील मेघ, मौसम और सागर है। तू अनादि और अकाल तथा निराकार है। तू वह है जिससे सारे जगत जन्म लेते हैं। - श्वेताश्वतर उपनिषद, 3-4 कहीं विभिन्न गुण और विशेषताएँ- वे चाहे जितने अधिक और चाहे जैसे हों- परमेश्वर को सीमित न करें, इसलिए एक उपनिषद ने जिज्ञासुओं को शिक्षा दी कि वे उसको नकारात्मक रूप में ग्रहण करें। वह न 'यह' है, न 'वह' और 'न' .... (संस्कृत की प्रसिद्ध उक्ति है- नेति.... नेति)।

site stats
Home | Hindu Jagruti | Hindu Web | Ved puran | Go to top