आखिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लिये जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय से विरोध के तीखे स्वर क्यों नहीं उठे? आखिर क्यों मुस्लिम बुद्धिजीवी फिर ख़ामोश रह गए? क्या वो इसके गंभीर नतीजों से वाकिफ नहीं थे? या फिर वो फ़ैसले पर जश्न मना रहे थे?
ये सोचने लायक बात है। जब किसी भी लोकतांत्रिक देश में किसी राज्य के शासक एक समुदाय विशेष के हितों और मर्जी को ध्यान में रख कर फ़ैसले लेंगे तो फिर धर्मनिरपेक्षता का पाखंड किस लिए? पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती समेत जम्मू कश्मीर के तमाम कठमुल्लों की इस ओछी सियासत के आगे गुलाम सरकार के घुटने टेकने से धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा खुल गया है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ख़ामोशी यह प्रमाणित करती है कि वे इस अन्याय का समर्थन करते हैं। आम मसलमानों मुसलमान बुद्धिजीवियों और जिहादी मुसलमानों मे कोइ अन्तर नहि है। सब मुसलमान जिहाद पर विश्वास करते हैं और हिन्दूओं को नापाक और कुफ्र समझते हैं। कहां है जवेद अखतर, शबाना अजमी, सयद सहाबुद्दीन, राजदीप सरदेसाइ, अरुंधति राय तीस्ता पीस्ता? कहां है तथा छद्म-सेक्युलारवादी?
सब जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं और हिंदू अल्पसंख्यक। ऐसे में अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के फैसले को सीधे तौर पर माना जा सकता है कि असहिष्णु मुसलमान के दबाव में हिन्दूओं के हितों की अनदेखी की गई है। उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई है। फिर क्या ग़लत होगा अगर इस देश के बहुसंख्यक हिंदुओं की आस्था को ध्यान में रख कर अयोध्या में राम मंदिर बनवा दिया जाए? अगर बहुसंख्यकों की इच्छा और हित ही किसी राज्य और राष्ट्र के लिए सर्वोपरी हैं तो फिर क्यों ना भारत को हिंदू राष्ट्र बना दिया जाए?
इन सब घटनाओं से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये लोग धर्मनिरपेक्ष नहिं केवल हिन्दूधर्मनिर्पेक्ष है और यह दुःख कि बात है कि लोगों का राजनीति और मीडिया मे बोलबाला है।