Monday, August 18, 2008

नेपाल में प्रचंड

लोकतांत्रिक तौर-तरीके अपनाकर नेपाल गणराज्य के प्रथम प्रधानमंत्री बने माओवादी नेता प्रचंड अर्थात पुष्प कमल दहल को भारत समेत अन्य अनेक देशों की शुभकामनाएं मिलना स्वाभाविक है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह अपना शासन भी लोकतंत्र के हिसाब से चलाएंगे। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सत्ता में आने के बाद माओवादी क्या कह रहे हैं, बल्कि यह है कि वे क्या करने जा रहे हैं? इस पर गौर करना होगा कि अभी तक उन्होंने न तो जबरन जब्त की गई संपत्तिलौटाई है, न अपने हथियारबंद दस्तों के अ‌र्द्धसैनिक ढांचे को भंग किया है और न ही अन्य समानांतर ढांचों को खत्म किया है। अनेक माओवादी सांसद ऐसे हैं जो कथित सैन्य पदों पर काबिज हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि माओवादी गुटों ने आम सहमति के आधार पर सरकार बनाने में कदम-कदम पर बाधाएं खड़ी कीं। आखिर यह सब देखते हुए उनके इस कथन पर भरोसा करने का क्या मतलब कि उन पर संदेह न किया जाए? जब संदेह के पर्याप्त आधार नजर आ रहे हैं तो उनकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है? दरअसल माओवादी जब तक शासन संचालन में लोकतांत्रिक आचार-व्यवहार का परिचय नहीं देते तब तक उनसे सतर्क रहने में ही भलाई है। भारत को खास तौर पर सतर्क रहना होगा, क्योंकि वे हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान के प्रति अपना बैर भाव खुले आम प्रकट करते रहे हैं। उन्हें भारत-नेपाल मैत्री संधि भी रास नहीं आ रही है। माओवादी जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं वह भारत ही नहीं, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए विजातीय है। नेपाल में यह विचारधारा चीन से आई है, जो यह प्रतिपादित करती है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। यह विचित्र है कि माओवादी चीन और भारत से समान दूरी रखने की बात कर रहे हैं। इसका सीधा अर्थ तो यह है कि नेपाल और भारत के सदियों पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्तों को महत्व देने से इनकार किया जा रहा है।

नेपाल में माओवादियों का उदय इसलिए भी भारत के लिए चिंता का कारण बनना चाहिए, क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय नक्सली समूह दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे हैं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि वे नेपाल के अपने साथियों के नक्शे कदम पर चलना चाहते हैं। यह सर्वथा उचित है कि भारत ने नेपाल के साथ अपने संबंध सुधारने की अपेक्षा जताई, लेकिन मित्रता कभी भी एकपक्षीय नहीं हो सकती। नेपाल पिछले कुछ समय से भारत के लिए न केवल समस्याएं उत्पन्न करता चला आ रहा है, बल्कि अपनी समस्याओं के लिए भारत को जिम्मेदार भी ठहराता रहा है। यदि आगे भी उसका यही रवैया रहा तो भारत की उदारता का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कम से कम अब तो यह नहीं होना चाहिए कि नेपाल का भरोसा हासिल करने के लिए भारत उसके प्रति उदारता का परिचय देता रहे और बदले में उसके रूखे व्यवहार का सामना करे। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसी उदारता के लिए अब कहीं कोई स्थान नहीं रह गया है। मौजूदा स्थितियों में भारत के लिए यही उचित है कि वह नेपाल से मित्रता की आकांक्षा तो रखे, लेकिन अपने हितों की कीमत पर नहीं। वस्तुत: यह सही समय है जब भारत अपने सभी पड़ोसी देशों के संदर्भ में अपनी मौजूदा नीति पर नए सिरे से विचार करे।

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