Wednesday, September 17, 2008

श्रीमद् भगवद्गीता

पहला अध्याय

धृतराष्ट्र बोले:

 धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।  मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय  ॥१-१॥ 

हे संजय, धर्मक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुये मेरे और पाण्डव के पुत्रों ने क्या किया ।

संजय बोले:

 दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।  आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्  ॥१-२॥ 

हे राजन, पाण्डवों की सेना व्यवस्था देख कर दुर्योधन ने अपने आचार्य के पास जा कर उनसे कहा ।

 पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।  व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥१-३॥ 

हे आचार्य, आप के तेजस्वी शिष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यवस्थित की इस विशाल पाण्डू सेना को देखिये ।

 अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।  युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१-४॥  धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।  पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥१-५॥  युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।  सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः  ॥१-६॥ 

इसमें भीम और अर्जुन के ही समान बहुत से महान शूरवीर योधा हैं जैसे युयुधान, विराट और महारथी द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज तथा नरश्रेष्ट शैब्य । विक्रान्त युधामन्यु, वीर्यवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र (अभिमन्यु), और द्रोपदी के पुत्र - सभी महारथी हैं ।


 अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।  नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते  ॥१-७॥ 

हे द्विजोत्तम, हमारी ओर भी जो विशिष्ट योद्धा हैं उन्हें आप को बताता हूँ । हमारी सैन्य के जो प्रमुख नायक हैं उन के नाम मैं आप को बताता हूँ ।

 भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।  अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च  ॥१-८॥ 

आप स्वयं, भीष्म पितामह, कर्ण, कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सौमदत्त (सोमदत्त के पुत्र) - यह सभी प्रमुख योधा हैं ।

 अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।  नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः  ॥१-९॥ 

हमारे पक्ष में युद्ध में कुशल, तरह तरह के शस्त्रों में माहिर और भी अनेकों योद्धा हैं जो मेरे लिये अपना जीवन तक त्यागने को त्यार हैं ।

 अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।  पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्  ॥१-१०॥ 

भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी सेना का बल पर्याप्त नहीं है, परन्तु भीम द्वारा रक्षित पाण्डवों की सेना बल पूर्ण है ।

 अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।  भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि  ॥१-११॥ 

इसलिये सब लोग जिन जिन स्थानों पर नियुक्त हों वहां से सभी हर ओर से भीष्म पितामह की रक्षा करें ।

 तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।  सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्  ॥१-१२॥ 

तब कुरुवृद्ध प्रतापवान भीष्म पितामह ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में सिंहनाद किया और शंख बजाना आरम्भ किया ।

 ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।  सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्  ॥१-१३॥ 

तब अनेक शंख, नगारे, ढोल, शृंगी आदि बजने लगे जिनसे घोर नाद उत्पन्न हुआ ।

 ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।  माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः  ॥१-१४॥ 

तब श्वेत अश्वों से वहित भव्य रथ में विराजमान भगवान माधव और पाण्डव पुत्र अर्जुन नें भी अपने अपने शंख बजाये ।

 पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।  पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः  ॥१-१५॥ 

भगवान हृषिकेश नें पाञ्चजन्य नामक अपना शंख बजाया और धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त नामक शंख बजाया । तथा भीम कर्मा भीम नें अपना पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ।

 अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।  नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ  ॥१-१६॥ 

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर नें अपना अनन्त विजय नामक शंख, नकुल नें सुघोष और सहदेव नें अपना मणिपुष्पक नामक शंख बजाये ।

 काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।  धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः  ॥१-१७॥  द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।  सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्  ॥१-१८॥ 

धनुधर काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट तथा अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र तथा अन्य सभी राजाओं नें तथा महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) नें - सभी नें अपने अपने शंख बजाये ।


 स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।  नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्  ॥१-१९॥ 

शंखों की उस महाध्वनि से आकाश और पृथिवि गूँजने लगीं तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय भिन्न गये ।

 अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।  प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः  ॥१-२०॥  हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । 

तब धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यवस्थित देख, कपिध्वज (जिनके ध्वज पर हनुमान जी विराजमान थे) श्री अर्जुन नें शस्त्र उठाकर भगवान हृषिकेश से यह वाक्य कहे ।

अर्जुन बोले:

 सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत  ॥१-२१॥  यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्‌धुकामानवस्थितान् ।  कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे  ॥१-२२॥ 

हे अच्युत, मेरा रथ दोनो सेनाओं के मध्य में स्थापित कर दीजिये ताकी मैं युद्ध की इच्छा रखने वाले इन योद्धाओं का निरीक्षण कर सकूं जिन के साथ मुझे युद्ध करना है ।


 योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।  धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः  ॥१-२३॥ 

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय चाहने वाले राजाओं को जो यहाँ युद्ध के लिये एकत्रित हुये हैं मैं देखूँ लूं ।

संजय बोले:

 एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।  सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्  ॥१-२४॥ 

हे भारत (धृतराष्ट्र), गुडाकेश के इन वचनों पर भगवान हृषिकेश नें उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में स्थापित कर दिया ।

 भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।  उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति  ॥१-२५॥ 

रथ को भीष्म पितामह, द्रोण तथा अन्य सभी प्रमुख राजाओं के सामने (उन दोनो सेनाओं के बीच में) स्थापित कर, कृष्ण भगवान नें अर्जुन से कहा की हे पार्थ इन कुरुवंशी राजाओं को देखो ।

 तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।  आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा  ॥१-२६॥  श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।  तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्  ॥१-२७॥ 

वहां पार्थ नें उस सेना में अपने पिता के भाईयों, पितामहों (दादा), आचार्यों, मामों, भाईयों, पुत्रों, मित्रों, पौत्रों, श्वशुरों (ससुर), संबन्धीयों को दोनो तरफ की सेनोओं में देखा ।


 कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् । 

इस प्रखार अपने सगे संबन्धियों और मित्रों को युद्ध में उपस्थित देख अर्जुन का मन करुणा पूर्ण हो उठा और उसने विषाद पूर्वक कृष्ण भगवान से यह कहा ।

अर्जुन बोले:

 दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्  ॥१-२८॥ 

हे कृष्ण, मैं अपने लोगों को युद्ध के लिये तत्पर यहाँ खडा देख रहा हूँ ।

 सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।  वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते  ॥१-२९॥ 

इन्हें देख कर मेरे अंग ठण्डे पड रहे है, और मेरा मुख सूख रहा है, और मेरा शरीर काँपने लगा है ।

 गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।  न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः  ॥१-३०॥ 

मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिरने को है, और मेरी सारी त्वचा मानो आग में जल उठी है । मैं अवस्थित रहने में अशक्त हो गया हूँ, मेरा मन भ्रमित हो रहा है ।

 निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।  न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे  ॥१-३१॥ 

हे केशव, जो निमित्त है उसे में भी मुझे विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि हे केशव, मुझे अपने ही स्वजनों को मारने में किसी भी प्रकार का कल्याण दिखाई नहीं देता ।

 न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।  किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा  ॥१-३२॥ 

हे कृष्ण, मुझे विजय, या राज्य और सुखों की इच्छा नहीं है । हे गोविंद, (अपने प्रिय जनों की हत्या कर) हमें राज्य से, या भोगों से, यहाँ तक की जीवन से भी क्या लाभ है ।

 येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।  त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च  ॥१-३३॥ 

जिन के लिये ही हम राज्य, भोग तथा सुख और धन की कामना करें, वे ही इस युद्ध में अपने प्राणों की बलि चढने को त्यार यहाँ अवस्थित हैं ।

 आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।  मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा  ॥१-३४॥ 

गुरुजन, पिता जन, पुत्र, तथा पितामहा, मातुल, ससुर, पौत्र, साले आदि सभी संबन्धि यहाँ प्रस्तुत हैं ।

 एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।  अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते  ॥१-३५॥ 

हे मधुसूदन । इन्हें हम त्रैलोक्य के राज के लिये भी नहीं मारना चाहेंगें, फिर इस धरती के लिये तो बात ही क्या है, चाहे ये हमें मार भी दें ।

 निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।  पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः  ॥१-३६॥ 

धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मार कर हमें भला क्या प्रसन्नता प्राप्त होगी हे जनार्दन । इन आततायिनों को मार कर हमें पाप ही प्राप्त होगा ।

 तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।  स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव  ॥१-३७॥ 

इसलिये धृतराष्ट्र के पुत्रो तथा अपने अन्य संबन्धियों को मारना हमारे लिये उचित नहीं है । हे माधव, अपने ही स्वजनों को मार कर हमें किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है ।

 यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।  कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्  ॥१-३८॥ 

यद्यपि ये लोग, लोभ के कारण जिनकी बुद्धि हरी जा चुकी है, अपने कुल के ही क्षय में और अपने मित्रों के साथ द्रोह करने में कोई दोष नहीं देख पा रहे ।

 कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।  कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन  ॥१-३९॥ 

परन्तु हे जनार्दन, हम लोग तो कुल का क्षय करने में दोष देख सकते हैं, हमें इस पाप से निवृत्त क्यों नहीं होना चाहिये (अर्थात इस पाप करने से टलना चाहिये) ।

 कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।  धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत  ॥१-४०॥ 

कुल के क्षय हो जाने पर कुल के सनातन (सदियों से चल रहे) कुलधर्म भी नष्ट हो जाते हैं । और कुल के धर्म नष्ट हो जाने पर सभी प्रकार के अधर्म बढने लगते हैं ।

 अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।  स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः  ॥१-४१॥ 

अधर्म फैल जाने पर, हे कृष्ण, कुल की स्त्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं । और हे वार्ष्णेय, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण धर्म नष्ट हो जाता है ।

 संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।  पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः  ॥१-४२॥ 

कुल के कुलघाती वर्णसंकर (वर्ण धर्म के न पालन से) नरक में गिरते हैं । इन के पितृ जन भी पिण्ड और जल की परम्पराओं के नष्ट हो जाने से (श्राद्ध आदि का पालन न करने से) अधोगति को प्राप्त होते हैं (उनका उद्धार नहीं होता) ।

 दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।  उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः  ॥१-४३॥ 

इस प्रकार वर्ण भ्रष्ट कुलघातियों के दोषों से उन के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।

 उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।  नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम  ॥१-४४॥ 

हे जनार्दन, कुलधर्म भ्रष्ट हुये मनुष्यों को अनिश्चित समय तक नरक में वास करना पडता है, ऐसा हमने सुना है ।

 अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।  यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः  ॥१-४५॥ 

अहो ! हम इस महापाप को करने के लिये आतुर हो यहाँ खडे हैं । राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों को मारने के लिये व्याकुल हैं ।

 यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।  धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्  ॥१-४६॥ 

यदि मेरे विरोध रहित रहते हुये, शस्त्र उठाये बिना भी यह धृतराष्ट्र के पुत्र हाथों में शस्त्र पकडे मुझे इस युद्ध भूमि में मार डालें, तो वह मेरे लिये (युद्ध करने की जगह) ज्यादा अच्छा होगा ।

संजय बोले

 एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।  विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः  ॥१-४७॥ 

यह कह कर शोक से उद्विग्न हुये मन से अर्जुन अपने धनुष बाण छोड कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ।


।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ।।



 दूसरा अध्याय

संजय बोले

 तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।  विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥२- १॥ 

तब चिंता और विशाद में डूबे अर्जुन को, जिसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे, मधुसूदन ने यह वाक्य कहे ॥


श्रीभगवान बोले

 कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।  अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२- २॥ 

हे अर्जुन, यह तुम किन विचारों में डूब रहे हो जो इस समय गलत हैं और स्वर्ग और कीर्ती के बाधक हैं ॥


 क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।  क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥२- ३॥ 

तुम्हारे लिये इस दुर्बलता का साथ लेना ठीक नहीं । इस नीच भाव, हृदय की दुर्बलता, का त्याग करके उठो हे परन्तप ॥


अर्जुन बोले

 कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।  इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥२- ४॥ 

हे अरिसूदन, मैं किस प्रकार भीष्म, संख्य और द्रोण से युध करुँगा । वे तो मेरी पूजा के हकदार हैं ॥


 गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।  हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥२- ५॥ 

इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा । इन को मारकर जो भोग हमें प्राप्त होंगे वे सब तो खून से रँगे होंगे ॥


 न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।  यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥२- ६॥ 

हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या है, उनका जीतना या हमारा, क्योंकि जिन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहेंगे वही धार्तराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़ें हैं ॥


 कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।  यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥२- ७॥ 

इस दुख चिंता ने मेरे स्वभाव को छीन लिया है और मेरा मन शंका से घिरकर सही धर्म को नहीं हेख पा रहा है । मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे लिये निष्चित प्रकार से अच्छा हो वही मुझे बताइये ॥ मैं आप का शिष्य हूँ और आप की ही शरण लेता हूँ ॥


 न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।  अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥२- ८॥ 

मुझे नहीं दिखता कैसे इस दुखः का, जो मेरी इन्द्रीयों को सुखा रहा है, अन्त हो सकता है, भले ही मुझे इस भूमी पर अति समृद्ध और शत्रुहीन राज्य यां देवतायों का भी राज्यपद क्यों न मिल जाऐ ॥

संजय बोले

 एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।  न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥२- ९॥ 

हृषिकेश, श्री गोविन्द जी को परन्तप अर्जुन, गुडाकेश यह कह कर चुप हो गये कि मैं युध नहीं करुँगा ॥

 तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।  सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥२- १०॥ 

हे भारत, दो सेनाओं के बीच में शोक और दुख से घिरे अर्जुन को प्रसन्नता से हृषीकेश ने यह बोला ॥


श्रीभगवान बोले

 अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।  गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥२- ११॥ 

जिन के लिये शोक नहीं करना चाहिये उनके लिये तुम शोक कर रहे हो और बोल तुम बुद्धीमानों की तरहँ रहे हो । ज्ञानी लोग न उन के लिये शोक करते है जो चले गऐ और न उन के लिये जो हैं ॥


 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।  न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥२- १२॥ 

न तुम्हारा न मेरा और न ही यह राजा जो दिख रहे हैं इनका कभी नाश होता है ॥ और यह भी नहीं की हम भविष्य मे नहीं रहेंगे ॥

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।  तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥२- १३॥ 

आत्मा जैसे देह के बाल, युवा यां बूढे होने पर भी वैसी ही रहती है उसी प्रकार देह का अन्त होने पर भी वैसी ही रहती है ॥ बुद्धीमान लोग इस पर व्यथित नहीं होते ॥


 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।  आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥२- १४॥ 

हे कौन्तेय, सरदी गरमी सुखः दुखः यह सब तो केवल स्पर्श मात्र हैं । आते जाते रहते हैं, हमेशा नहीं रहते, इन्हें सहन करो, हे भारत ॥


 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।  समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥२- १५॥ 

हे पुरुषर्षभ, वह धीर पुरुष जो इनसे व्यथित नहीं होता, जो दुख और सुख में एक सा रहता है, वह अमरता के लायक हो जाता है ॥


 नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।  उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥२- १६॥ 

न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता । इन होनो की ही असलीयत वह देख चुके हैं जो सार को देखते हैं ॥


 अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।  विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥२- १७॥ 

तुम यह जानो कि उसका नाश नहीं किया जा सकता जिसमे यह सब कुछ स्थित है । क्योंकि जो अमर है उसका नाश करना किसी के बस में नहीं ॥


 अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।  अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥२- १८॥ 

यह देह तो मरणशील है, लेकिन शरीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है । इस आत्मा का न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है, इसलिऐ युद्ध करो हे भारत ॥


 य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।  उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥२- १९॥ 

जो इसे मारने वाला जानता है या फिर जो इसे मरा मानता है, वह दोनों ही नहीं जानते । यह न मारती है और न मरती है ॥


 न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।  अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२- २०॥ 

यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है । यह तो अजन्मी, अन्तहीन, शाश्वत और अमर है । सदा से है, कब से है । शरीर के मरने पर भी इसका अन्त नहीं होता ॥


 वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।  कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥२- २१॥ 

हे पार्थ, जो पुरुष इसे अविनाशी, अमर और जन्महीन, विकारहीन जानता है, वह किसी को कैसे मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है ॥


 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।  तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२- २२॥ 

जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपड़े उतार कर नऐ कपड़े पहनता है, वैसे ही शरीर धारण की हुई आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर प्राप्त करती है ॥


 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।  न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥२- २३॥ 

न शस्त्र इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है । न पानी इसे भिगो सकता है और न ही हवा इसे सुखा सकती है ॥


 अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।  नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२- २४॥ 

यह अछेद्य है, जलाई नहीं जा सकती, भिगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती । यह हमेशा रहने वाली है, हर जगह है, स्थिर है, अन्तहीन है ॥


 अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।  तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥२- २५॥ 

यह दिखती नहीं है, न इसे समझा जा सकता है । यह बदलाव से रहित है, ऐसा कहा जाता है । इसलिये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥


 अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।  तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥२- २६॥ 

हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो, तब भी, तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥


 जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।  तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२- २७॥ 

क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसका मरना निष्चित है । मरने वाले का जन्म भी तय है । जिसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥


 अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।  अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२- २८॥ 

हे भारत, जीव शुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जाते हैं । इस में दुखी होने की क्या बात है ॥



 आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।  आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥२- २९॥ 

कोई इसे आश्चर्य से देखता है, कोई इसके बारे में आश्चर्य से बताता है, और कोई इसके बारे में आश्चर्यचित होकर सुनता है, लेकिन सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं जानता ॥



 देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।  तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२- ३०॥ 

हे भारत, हर देह में जो आत्मा है वह नित्य है, उसका वध नहीं किया जा सकता । इसलिये किसी भी जीव के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ॥


 स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।  धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥२- ३१॥ 

अपने खुद के धर्म से तुम्हें हिलना नहीं चाहिये क्योंकि न्याय के लिये किये गये युद्ध से बढकर ऐक क्षत्रीय के लिये कुछ नहीं है ॥



 यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।  सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥२- ३२॥ 

हे पार्थ, सुखी हैं वे क्षत्रिय जिन्हें ऐसा युद्ध मिलता है जो स्वयंम ही आया हो और स्वर्ग का खुला दरवाजा हो ॥



 अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।  ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥२- ३३॥ 

लेकिन यदि तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धर्म और यश की हानि करोगे और पाप प्राप्त करोगे ॥



 अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।  सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥२- ३४॥ 

तुम्हारे अन्तहीन अपयश की लोग बातें करेंगे । ऐसी अकीर्ती एक प्रतीष्ठित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ कर है ॥



 भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।  येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥२- ३५॥ 

महारथी योद्धा तुम्हें युद्ध के भय से भागा समझेंगें । जिनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों में गिर जाओगे ॥



 अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।  निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥२- ३६॥ 

अहित की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारे विपक्षी तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगें । इस से बढकर दुखदायी क्या होगा ॥



 हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।  तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥२- ३७॥ 

यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे । इसलिये उठो, हे कौन्तेय, और निश्चय करके युद्ध करो ॥



 सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।  ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥ 

सुख दुख को, लाभ हानि को, जय और हार को ऐक सा देखते हुऐ ही युद्ध करो । ऍसा करते हुऐ तुम्हें पाप नहीं मिलेगा ॥



 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।  बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥२- ३९॥ 

यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया । अब तुम कर्म योग की दृष्टी से सुनो । इस बुद्धी को धारण करके तुम कर्म के बन्धन से छुटकारा पा लोगे ॥



 नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।  स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥२- ४०॥ 

न इसमें की गई मेहनत व्यर्थ जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है । इस धर्म का जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है ॥



 व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।  बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥२- ४१॥ 

इस धर्म का पालन करती बुद्धी ऐक ही जगह स्थिर रहती है । लेकिन जिनकी बुद्धी इस धर्म में नहीं है वह अन्तहीन दिशाओं में बिखरी रहती है ॥



 यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।  वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥२- ४२॥  कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।  क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥२- ४३॥ 

हे पार्थ, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है, वेदों का भाषण करते हैं और जिनके लिये उससे बढकर और कुछ नहीं है, जिनकी आत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और स्वर्ग जिनका मकस्द है वह ऍसे कर्म करते हैं जिनका फल दूसरा जनम है । तरह तरह के कर्मों में फसे हुऐ और भोग ऍश्वर्य की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ खिचते हैं ॥


 भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।  व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥२- ४४॥ 

भोग ऍश्वर्य से जुड़े जिनकी बुद्धी हरी जा चुकी है, ऍसी बुद्धी कर्म योग मे स्थिरता ग्रहण नहीं करती ॥



 त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।  निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२- ४५॥ 

वेदों में तीन गुणो का व्यखान है । तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अर्जुन । द्वन्द्वता और भेदों से मुक्त हो । सत में खुद को स्थिर करो । लाभ और रक्षा की चिंता छोड़ो और खुद में स्थित हो ॥



 यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके ।  तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥२- ४६॥ 

हर जगह पानी होने पर जितना सा काम ऐक कूँऐ का होता है, उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी वेदों से है ॥ मतलब यह की उस बुद्धिमान पुरुष के लिये जो सत्य को जान चुका है, वेदों में बताये भोग प्राप्ती के कर्मों से कोई मतलब नहीं है ॥



 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।  मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥२- ४७॥ 

कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं । कर्म को फल के लिये मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो ॥



 योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।  सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२- ४८॥ 

योग में स्थित रह कर कर्म करो, हे धनंजय, उससे बिना जुड़े हुऐ । काम सफल हो न हो, दोनो में ऐक से रहो । इसी समता को योग कहते हैं ॥



 दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।  बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥२- ४९॥ 

इस बुद्धी योग के द्वारा किया काम तो बहुत ऊँचा है । इस बुद्धि की शरण लो । काम को फल कि इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं ॥



 बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।  तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥२- ५०॥ 

इस बुद्धि से युक्त होकर तुम अच्छे और बुरे कर्म दोनो से छुटकारा पा लोगे । इसलिये योग को धारण करो । यह योग ही काम करने में असली कुशलता है ॥



 कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥२- ५१॥ 

इस बुद्धि से युक्त होकर मुनि लोग किये हुऐ काम के नतीजों को त्याग देते हैं । इस प्रकार जन्म बन्धन से मुक्त होकर वे दुख से परे स्थान प्राप्त करते हैं ॥



 यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।  तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥२- ५२॥ 

जब तुम्हारी बुद्धि अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला है उसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहेगा ॥



 श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।  समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥२- ५३॥ 

ऐक दूसरे को काटते उपदेश और श्रुतियां सुन सुन कर जब तुम अडिग स्थिर रहोगे, तब तुम्हारी बुद्धी स्थिर हो जायेगी और तुम योग को प्राप्त कर लोगे ॥



अर्जुन बोले

 स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।  स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥२- ५४॥ 

हे केशव, जिसकी बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो चुकि है, वह कैसा होता है । ऍसा स्थिरता प्राप्त किया व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, फिरता है ॥


श्रीभगवान बोले

 प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।  आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥२- ५५॥ 

हे पार्थ, जब वह अपने मन में स्थित सभी कामनाओं को निकाल देता है, और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, तब उसे ज्ञान और बुद्धिमता में स्थित कहा जाता है ॥



 दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।  वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥२- ५६॥ 

जब वह दुखः से विचलित नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे नहीं उठतीं, इच्छा और तड़प, डर और गुस्से से मुक्त, ऐसे स्थित हुऐ धीर मनुष्य को ही मुनि कहा जाता है ॥



 यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।  नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ५७॥ 

किसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और न उससे नफरत करता है उसकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है ॥



 यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।  इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ५८॥ 

जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी इन्द्रीयाँ को उनके विषयों से निकाल कर खुद में समेट रखा है, वह ज्ञान में स्थित है ॥


 विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।  रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥२- ५९॥ 

विषयों का त्याग के देने पर उनका स्वाद ही बचता है । परम् को देख लेने पर वह स्वाद भी मन से छूट जाता है ॥



 यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।  इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥२- ६०॥ 

हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष के मन को भी उसकी चंचल इन्द्रीयाँ बलपूर्वक छीन लिती हैं ॥



 तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।  वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ६१॥ 

उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चाहिये, क्योंकि जिसकी इन्द्रीयाँ वश में है वही ज्ञान में स्थित है ॥



 ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।  सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२- ६२॥ 

चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उन से लगाव हो जाता है । इससे उसमे इच्छा पौदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है ॥



 क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।  स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥२- ६३॥ 

गुस्से से दिमाग खराब होता है और उस से यादाश्त पर पड़दा पड़ जाता है । यादाश्त पर पड़दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश कर बौठता है ॥



 रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।  आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥२- ६४॥ 

इन्द्रीयों को राग और द्वेष से मुक्त कर, खुद के वश में कर, जब मनुष्य विषयों को संयम से ग्रहण करता है, तो वह प्रसन्नता और शान्ती प्राप्त करता है ॥



 प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।  प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥२- ६५॥ 

शान्ती से उसके सारे दुखों का अन्त हो जाता है क्योंकि शान्त चित मनुष्य की बुद्धि जलदि ही स्थिर हो जाती है ॥



 नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।  न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥२- ६६॥ 

जो संयम से युक्त नहीं है, जिसकी इन्द्रीयाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि भी स्थिर नही हो सकती और न ही उस में शान्ति की भावना हो सकती है । और जिसमे शान्ति की भावना नहीं है वह शान्त कैसे हो सकता है । जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसा ॥



 इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।  तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥२- ६७॥ 

मन अगर विचरती हुई इन्द्रीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तो वह बुद्धि को भी अपने साथ वैसे ही खीँच कर ले जाता है जैसे एक नाव को हवा खीच ले जाती है ॥



 तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।  इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ६८॥ 

इसलिये हे महाबाहो, जिसकी सभी इन्द्रीयाँ अपने विषयों से पूरी तरह हटी हुई हैं, सिमटी हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है ॥



 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।  यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥२- ६९॥ 

जो सब के लिये रात है उसमें संयमी जागता है, और जिसमे सब जागते हैं उसे मुनि रात की तरह देखता है ॥



 आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।  तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥२- ७०॥ 

नदियाँ जैसे समुद्र, जो एकदम भरा, अचल और स्थिर रहता है, में आकर शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार जिस मनुष्य में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं, वह शान्ती प्राप्त करता है । न कि वह जो उनके पीछे भागता है ॥



 विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः ।  निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥२- ७१॥ 

सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुष्य स्पृह रहित रहता है, जो मै और मेरा रूपी अहंकार को भूल विचरता है, वह शान्ती को प्राप्त करता है ॥



 एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।  स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥२- ७२॥ 

ब्रह्म में स्थित मनुष्य ऍसा होता है, हे पार्थ । इसे प्राप्त करके वो फिर भटकता नहीं । अन्त समय भी इसी स्थिति में स्थित वह ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता है ॥


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

 तीसरा अध्याय

अर्जुन बोले


 ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।  तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥३- १॥ 

हे केशव, अगर आप बुद्धि को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों न्योजित कर रहे हैं ॥


 व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में ।  तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥३- २॥ 

मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है । इसलिये मुझे वह एक रस्ता बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो ॥


श्रीभगवान बोले


 लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।  ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३- ३॥ 

हे नि़ष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो प्रकार की निष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं । ज्ञान योग सन्यास से जुड़े लोगों के लिये और कर्म योग उनके लिये जो कर्म योग से जुड़े हैं ॥


 न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।  न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥३- ४॥ 

कर्म का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म सिद्धी नहीं प्राप्त कर सकता अतः कर्म योग के अभ्यास में कर्मों का करना जरूरी है । और न ही केवल त्याग कर देने से सिद्धी प्राप्त होती है ॥


 न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।  कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥३- ५॥ 

कोई भी एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं बैठ सकता । सब प्रकृति से पैदा हुऐ गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं ॥


 कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।  इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥३- ६॥ 

कर्म कि इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन विषयों के बारे में सोचता है उसे मिथ्या अतः ढोंग आचारी कहा जाता है ॥


 यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।  कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥३- ७॥ 

हे अर्जुन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को नियमित कर कर्म का आरम्भ करते हैं, कर्म योग का आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं ॥


 नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।  शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥३- ८॥ 

जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकि कर्म से ही अकर्म पैदा होता है, मतलब कर्म योग द्वारा कर्म करने से ही कर्मों से छुटकारा मिलता है । कर्म किये बिना तो यह शरीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती । शरीर है तो कर्म तो करना ही पड़ेगा ॥


 यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।  तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥३- ९॥ 

केवल यज्ञा समझ कर तुम कर्म करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कर्म बन्धन का कारण बनता है । उसी के लिये कर्म करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो ॥


 सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।    अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥३- १०॥ 

यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापति ने प्रजा की सृष्टि की और कहा की इसी प्रकार कर्म यज्ञ करने से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी ॥


 देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।  परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥३- ११॥ 

तुम देवताओ को प्रसन्न करो और देवता तुम्हें प्रसन्न करेंगे, इस प्रकार परस्पर एक दूसरे का खयाल रखते तुम परम श्रेय को प्राप्त करोगे ॥


 इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।  तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥३- १२॥ 

यज्ञों से संतुष्ट हुऐ देवता तुम्हें मन पसंद भोग प्रदान करेंगे । जो उनके दिये हुऐ भोगों को उन्हें दिये बिना खुद ही भोगता है वह चोर है ॥


 यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।  भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात् ॥३- १३॥ 

जो यज्ञ से निकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं लेकिन जो पापी खुद पचाने को लिये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं ॥


 अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।  यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३- १४॥ 

जीव अनाज से होते हैं । अनाज बिरिश से होता है । और बिरिश यज्ञ से होती है । यज्ञ कर्म से होता है ॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)


 कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।  तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३- १५॥ 

कर्म ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है । इसलिये हर ओर स्थित ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थापित है ।


 एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।  अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥ 

इस तरह चल रहे इस चक्र में जो हिस्सा नहीं लेता, सहायक नहीं होता, अपनी ईन्द्रीयों में डूबा हुआ वह पाप जीवन जीने वाला, व्यर्थ ही, हे पार्थ, जीता है ॥


 यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।  आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥ 

लेकिन जो मानव खुद ही में स्थित है, अपने आप में ही तृप्त है, अपने आप में ही सन्तुष्ट है, उस के लिये कोई भी कार्य नहीं बचता ॥


 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।  न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥ 

न उसे कभी किसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से । और न ही वह किसी भी जीव पर किसी भी मतलब के लिये आश्रय लेता है ॥


 तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।  असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥ 

इसलिये कर्म से जुड़े बिना सदा अपना कर्म करते हुऐ समता का अचरण करो ॥ बिना जुड़े कर्म का आचरण करने से पुरुष परम को प्राप्त कर लेता है ॥


 कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।  लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥ 

कर्म के द्वारा ही जनक आदि सिद्धी में स्थापित हुऐ थे । इस लोक समूह, इस संसार के भले के लिये तुम्हें भी कर्म करना चाहिऐ ॥


 यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।  स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥ 

क्योंकि जो ऐक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं । वह जो करता है उसी को प्रमाण मान कर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं ॥


 न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।  नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥ 

हे पार्थ, तीनो लोकों में मेरे लिये कुछ भी करना वाला नहीं है । और न ही कुछ पाने वाला है लेकिन फिर भी मैं कर्म में लगता हूँ ॥


 यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।  मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥ 

हे पार्थ, अगर मैं कर्म में नहीं लगूँ तो सभी मनुष्य भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे ॥


 उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।  संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥३- २४॥ 

अगर मै कर्म न करूँ तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी और मैं इस प्रजा का नाशकर्ता हो जाऊँगा ॥


 सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।  कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३- २५॥ 

जैसे अज्ञानी लोग कर्मों से जुड़ कर कर्म करते हैं वैसे ही ज्ञानमन्दों को चाहिये कि कर्म से बिना जुड़े कर्म करें । इस संसार चक्र के लाभ के लिये ही कर्म करें ।


 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।  जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥३- २६॥ 

जो लोग कर्मो के फलों से जुड़े है, कर्मों से जुड़े हैं ज्ञानमंद उनकी बुद्धि को न छेदें । सभी कामों को कर्मयोग बुद्धि से युक्त होकर समता का आचरण करते हुऐ करें ॥


 प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।  अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥३- २७॥ 

सभी कर्म प्रकृति में स्थित गुणों द्वारा ही किये जाते हैं । लेकिन अहंकार से विमूढ हुआ मनुष्य स्वय्म को ही कर्ता समझता है ॥


 तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।  गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥३- २८॥ 

हे महाबाहो, गुणों और कर्मों के विभागों को सार तक जानने वाला, यह मान कर की गुण ही गुणों से वर्त रहे हैं, जुड़ता नहीं ॥


 प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।  तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥३- २९॥ 

प्रकृति के गुणों से मूर्ख हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कर्मों से जुड़े रहते है । सब जानने वाले को चाहिऐ कि वह अधूरे ज्ञान वालों को विचलित न करे ॥


 मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।  निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३- ३०॥ 

सभी कर्मों को मेरे हवाले कर, अध्यात्म में मन को लगाओ । आशाओं से मुक्त होकर, "मै" को भूल कर, बुखार मुक्त होकर युद्ध करो ॥


 यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।  श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३- ३१॥ 

मेरे इस मत को, जो मानव श्रद्धा और बिना दोष निकाले सदा धारण करता है और मानता है, वह कर्मों से मु्क्ती प्राप्त करता है ॥


 यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम् ।  सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३- ३२॥ 

जो इसमें दोष निकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता, उसे तुम सारे ज्ञान से वंचित, मूर्ख हुआ और नष्ट बुद्धी जानो ॥


 सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।  प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३- ३३॥ 

सब वैसा ही करते है जैसी उनका स्वभाव होता है, चाहे वह ज्ञानवान भी हों । अपने स्वभाव से ही सभी प्राणी होते हैं फिर सयंम से क्या होगा ॥


 इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।  तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३- ३४॥ 

इन्द्रियों के लिये उन के विषयों में खींच और घृणा होती है । इन दोनो के वश में मत आओ क्योंकि यह रस्ते के रुकावट हैं ॥


 श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥ 

अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमे कमियाँ भी हों, किसी और के अच्छी तरह किये काम से । अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो ॥

अर्जुन बोले

 अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।  अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३- ३६॥ 

लेकिन, हे वार्ष्णेय, किसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है, अपनी मरजी के बिना भी, जैसे कि बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो ॥


श्रीभगवान बोले

 काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।  महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३- ३७॥ 

इच्छा और गुस्सा जो रजो गुण से होते हैं, महा विनाशी, महापापी इसे तुम यहाँ दुश्मन जानो ॥


 धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।  यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३- ३८॥ 

जैसे आग को धूआँ ढक लेता है, शीशे को मिट्टी ढक लेती है, शिशू को गर्भ ढका लेता है, उसी तरह वह इनसे ढका रहता है ॥

(क्या ढका रहता है, अगले श्लोक में है )


 आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।  कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३- ३९॥ 

यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है, इच्छा का रूप लिऐ, हे कौन्तेय, जिसे पूरा करना संभव नहीं ॥


 इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।  एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥३- ४०॥ 

इन्द्रीयाँ मन और बुद्धि इसके स्थान कहे जाते हैं । यह देहधिरियों को मूर्ख बना उनके ज्ञान को ढक लेती है ॥


 तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।  पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥३- ४१॥ 

इसलिये, हे भरतर्षभ, सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रीयों को नियमित करो और इस पापमयी, ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाली इच्छा का त्याग करो ॥


 इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।  मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥३- ४२॥ 

इन्द्रीयों को उत्तम कहा जाता है, और इन्द्रीयों से उत्तम मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और बुद्धि से ऊपर आत्मा है ॥


 एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।  जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३- ४३॥ 


इस प्रकार स्वयंम को बुद्धि से ऊपर जान कर, स्वयंम को स्वयंम के वश में कर, हे महाबाहो, इस इच्छा रूपी शत्रु, पर जीत प्राप्त कर लो, जिसे जीतना कठिन है ॥



॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


 चौथा अध्याय

श्रीभगवानुवाच

 इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।  विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥४-१॥ 

इस अव्यय योगा को मैने विवस्वान को बताया । विवस्वान ने इसे मनु को कहा । और मनु ने इसे इक्ष्वाक को बताया ॥


 एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।  स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥४-२॥ 

हे परन्तप, इस तरह यह योगा परम्परा से राजर्षीयों को प्राप्त होती रही । लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, बहुत समय बाद, इसका ज्ञान नष्ट हो गया ॥


 स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।  भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥४-३॥ 

वही पुरातन योगा को मैने आज फिर तुम्हे बताया है । तुम मेरे भक्त हो, मेरे मित्र हो और यह योगा एक उत्तम रहस्य है ॥


अर्जुन उवाच

 अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।  कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४-४॥ 

आपका जन्म तो अभी हुआ है, विवस्वान तो बहुत पहले हुऐ हैं । कैसे मैं यह समझूँ कि आप ने इसे शुरू मे बताया था ॥

श्रीभगवानुवाच

 बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।  तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥४-५॥ 

अर्जुन, मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं और तुम्हारे भी । उन सब को मैं तो जानता हूँ पर तुम नहीं जानते, हे परन्तप ॥

 अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।  प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥४-६॥ 

यद्यपि मैं अजन्मा और अव्यय, सभी जीवों का महेश्वर हूँ, तद्यपि मैं अपनी प्रकृति को अपने वश में कर अपनी माया से ही संभव होता हूँ ॥

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।  अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥ 

हे भारत, जब जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढता है, तब तब मैं सवयंम सवयं की रचना करता हूँ ॥

 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।  धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥ 

साधू पुरुषों के कल्याण के लिये, और दुष्कर्मियों के विनाश के लिये, तथा धर्म कि स्थापना के लिये मैं युगों योगों मे जन्म लेता हूँ ॥

 जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।  त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥४-९॥ 

मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इसे जो सारवत जानता है, देह को त्यागने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि वो मेरे पास आता है, हे अर्जुन ॥


 वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।  बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥४-१०॥ 

लगाव, भय और क्रोध से मुक्त, मुझ में मन लगाये हुऐ, मेरा ही आश्रय लिये लोग, ज्ञान और तप से पवित्र हो, मेरे पास पहुँचते हैं ॥


 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।  मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥४-११॥ 

जो मेरे पास जैसे आता है, मैं उसे वैसे ही मिलता हूँ । हे पार्थ, सभी मनुष्य हर प्रकार से मेरा ही अनुगमन करते हैं ॥

 काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।  क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥४-१२॥ 

जो किये काम मे सफलता चाहते हैं वो देवताओ का पूजन करते हैं । इस मनुष्य लोक में कर्मों से सफलता शीघ्र ही मिलती है ॥

 चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।  तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥४-१३॥ 

ये जारों वर्ण मेरे द्वारा ही रचे गये थे, गुणों और कर्मों के विभागों के आधार पर । इन कर्मों का कर्ता होते हुऐ भी परिवर्तन रहित मुझ को तुम अकर्ता ही जानो ॥

 न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।  इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥४-१४॥ 

न मुझे कर्म रंगते हैं और न ही मुझ में कर्मों के फलों के लिये कोई इच्छा है । जो मुझे इस प्रकार जानता है, उसे कर्म नहीं बाँधते ॥

 एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।  कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥४-१५॥ 

पहले भी यह जान कर ही मोक्ष की इच्छा रखने वाले कर्म करते थे । इसलिये तुम भी कर्म करो, जैसे पूर्वों ने पुरातन समय में किये ॥


 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।  तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥४-१६॥ 

कर्म कया है और अकर्म कया है, विद्वान भी इस के बारे में मोहित हैं । तुम्हे मैं कर्म कया है, ये बताता हूँ जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे ॥

 कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।  अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥४-१७॥ 

कर्म को जानना जरूरी है और न करने लायक कर्म को भी । अकर्म को भी जानना जरूरी है, क्योंकि कर्म रहस्यमयी है ॥

 कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।  स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥४-१८॥ 

कर्म करने मे जो अकर्म देखता है, और कर्म न करने मे भी जो कर्म होता देखता है, वही मनुष्य बुद्धिमान है और इसी बुद्धि से युक्त होकर वो अपने सभी कर्म करता है ॥

 यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।  ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥४-१९॥ 

जिसके द्वारा आरम्भ किया सब कुछ इच्छा संकल्प से मुक्त होता है, जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में जल कर राख हो गये हैं, उसे ज्ञानमंद लोग बुद्धिमान कहते हैं ॥

 त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।  कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥४-२०॥ 

कर्म के फल से लगाव त्याग कर, सदा तृप्त और आश्रयहीन रहने वाला, कर्म मे लगा हुआ होकर भी, कभी कुछ नहीं करता है ॥


 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।  शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥४-२१॥ 

मोघ आशाओं से मुक्त, अपने चित और आत्मा को वश में कर, घर सम्पत्ति आदि मिनसिक परिग्रहों को त्याग, जो केवल शरीर से कर्म करता है, वो कर्म करते हुऐ भी पाप नहीं प्राप्त करता ॥


 यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।  समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥४-२२॥ 

सवयंम ही चल कर आये लाभ से ही सन्तुष्ट, द्विन्द्वता से ऊपर उठा हुआ, और दिमागी जलन से मुक्त, जो सफलता असफलता मे एक सा है, वो कार्य करता हुआ भी नहीं बँधता ॥

 गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।  यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥४-२३॥ 

संग छोड़ जो मुक्त हो चुका है, जिसका चित ज्ञान में स्थित है, जो केवल यज्ञ के लिये कर्म कर रहा है, उसके संपूर्ण कर्म पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं ॥


 ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।  ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥४-२४॥ 

ब्रह्म ही अर्पण करने का साधन है, ब्रह्म ही जो अर्पण हो रहा है वो है, ब्रह्म ही वो अग्नि है जिसमे अर्पण किया जा रहा है, और अर्पण करने वाला भी ब्रह्म ही है । इस प्रकार कर्म करते समय जो ब्रह्म मे समाधित हैं, वे ब्रह्म को ही प्राप्त करते हैं ॥


 दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।  ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥४-२५॥ 

कुछ योगी यज्ञ के द्वारा देवों की पूजा करते हैं । और कुछ ब्रह्म की ही अग्नि मे यज्ञ कि आहुति देते हैं ॥

 श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।  शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥४-२६॥ 

अन्य सुनने आदि इन्द्रियों की संयम अग्नि मे आहुति देते हैं । और अन्य शब्दादि विषयों कि इन्द्रियों रूपी अग्नि मे आहूति देते हैं ॥

 सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।  आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥४-२७॥ 

और दूसरे कोई, सभी इन्द्रियों और प्राणों को कर्म मे लगा कर, आत्म संयम द्वारा, ज्ञान से जल रही, योग अग्नि मे अर्पित करते हैं


 द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।  स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥४-२८॥ 

इस प्रकार कोई धन पदार्थों द्वारा यज्ञ करते हैं, कोई तप द्वारा यज्ञ करते हैं, कोई कर्म योग द्वारा यज्ञ करते हैं और कोई स्वाध्याय द्वारा ज्ञान यज्ञ करते हैं, अपने अपने व्रतों का सावधानि से पालन करते हुऐ ॥


 अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।  प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥४-२९॥ 

और भी कई, अपान में प्राण को अर्पित कर और प्राण मे अपान को अर्पित कर, इस प्रकार प्राण और अपान कि गतियों को नियमित कर, प्राणायाम मे लगते हैँ ॥

 अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।  सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥४-३०॥ 

अन्य कुछ, अहार न ले कर, प्राणों को प्राणों मे अर्पित करते हैं । ये सभी ही, यज्ञों द्वारा क्षीण पाप हुऐ, यज्ञ को जानने वाले हैं ॥

 यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।  नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥४-३१॥ 

यज्ञ से उत्पन्न इस अमृत का जो पान करते हैं अर्थात जो यज्ञ कर पापों को क्षीण कर उससे उत्पन्न शान्ति को प्राप्त करते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं । जो यज्ञ नहीं करता, उसके लिये यह लोक ही सुखमयी नहीं है, तो और कोई लोक भी कैसे हो सकता है, हे कुरुसत्तम ॥


 एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।  कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥४-३२॥ 

इस प्रकार ब्रह्म से बहुत से यज्ञों का विधान हुआ । इन सभी को तुम कर्म से उत्पन्न हुआ जानो और ऍसा जान जाने पर तुम भी कर्म से मोक्ष पा जाओगे ॥

 श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।  सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥४-३३॥ 

हे परन्तप, धन आदि पदार्थों के यज्ञ से ज्ञान यज्ञ ज्यादा अच्छा है । सारे कर्म पूर्ण रूप से ज्ञान मिल जाने पर अन्त पाते हैं ॥

 तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।  उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥४-३४॥ 

सार को जानने वाले ज्ञानमंदों को तुम प्रणाम करो, उनसे प्रशन करो और उनकी सेवा करो ॥ वे तुम्हे ज्ञान मे उपदेश देंगे ॥

 यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।  येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥४-३५॥ 

हे पाण्डव, उस ज्ञान में, जिसे जान लेने पर तुम फिर से मोहित नहीं होगे, और अशेष सभी जीवों को तुम अपने में अन्यथा मुझ मे देखोगे ॥


 अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।  सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥४-३६॥ 

यदि तुम सभी पाप करने वालों से भी अधिक पापी हो, तब भी ज्ञान रूपी नाव द्वारा तुम उन सब पापों को पार कर जाओगे ॥

 यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।  ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥४-३७॥ 

जैसे समृद्ध अग्नि भस्म कर डालती है, हे अर्जुन, उसी प्रकार ज्ञान अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर डालती है ॥

 न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।  तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥४-३८॥ 

ज्ञान से अधिक पवित्र इस संसार पर और कुछ नहीं है । तुम सवयंम ही, योग में सिद्ध हो जाने पर, समय के साथ अपनी आत्मा में ज्ञान को प्राप्त करोगे ॥

 श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।  ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥४-३९॥ 

श्रद्धा रखने वाले, अपनी इन्द्रियों का संयम कर ज्ञान लभते हैं । और ज्ञान मिल जाने पर, जलद ही परम शान्ति को प्राप्त होते हैं ॥

 अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।  नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४-४०॥ 

ज्ञानहीन और श्रद्धाहीन, शंकाओं मे डूबी आत्मा वालों का विनाश हो जाता है । न उनके लिये ये लोक है, न कोई और न ही शंका में डूबी आत्मा को कोई सुख है ॥

 योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।  आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥४-४१॥ 

योग द्वारा कर्मों का त्याग किये हुआ, ज्ञान द्वारा शंकाओं को छिन्न भिन्न किया हुआ, आत्म मे स्थित व्यक्ति को कर्म नहीं बाँधते, हे धनंजय ॥

 तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।  छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४-४२॥ 

इसलिये अज्ञान से जन्मे इस संशय को जो तुम्हारे हृदय मे घर किया हुआ है, ज्ञान रूपी तल्वार से चीर डालो, और योग को धारण कर उठो हे भारत ॥


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥



 पाँचवां अध्याय

अर्जुन उवाच

 संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।  यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥५- १॥ 

हे कृष्ण, आप कर्मों के त्याग की प्रशंसा कर रहे हैं और फिर योग द्वारा कर्मों को करने की भी । इन दोनों में से जो ऐक मेरे लिये ज्यादा अच्छा है वही आप निश्चित कर के मुझे कहिये ॥


श्रीभगवानुवाच

 संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।  तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥५- २॥ 

संन्यास और कर्म योग, ये दोनो ही श्रेय हैं, परम की प्राप्ति कराने वाले हैं । लेकिन कर्मों से संन्यास की जगह, योग द्वारा कर्मों का करना अच्छा है ॥

 ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।  निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५- ३॥ 

उसे तुम सदा संन्यासी ही जानो जो न घृणा करता है और न इच्छा करता है । हे महाबाहो, द्विन्दता से मुक्त व्यक्ति आसानी से ही बंधन से मुक्त हो जाता है ॥

 सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।  एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥५- ४॥ 

संन्यास अथवा सांख्य को और कर्म योग को बालक ही भिन्न भिन्न देखते हैं, ज्ञानमंद नहीं । किसी भी एक में ही स्थित मनुष्य दोनो के ही फलों को समान रूप से पाता है ॥

 यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।  एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति ॥५- ५॥ 

सांख्य से जो स्थान प्राप्त होता है, वही स्थान योग से भी प्राप्त होता है । जो सांख्य और कर्म योग को एक ही देखता है, वही वास्तव में देखता है ॥

 संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।  योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥५- ६॥ 

संन्यास अथवा त्याग, हे महाबाहो, कर्म योग के बिना प्राप्त करना कठिन है । लेकिन योग से युक्त मुनि कुछ ही समय मे ब्रह्म को प्राप्त कर लेते है ॥

 योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।  सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥५- ७॥ 

योग से युक्त हुआ, शुद्ध आत्मा वाला, सवयंम और अपनी इन्द्रियों पर जीत पाया हुआ, सभी जगह और सभी जीवों मे एक ही परमात्मा को देखता हुआ, ऍसा मुनि कर्म करते हुऐ भी लिपता नहीं है ॥

 नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।  पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥५- ८॥  प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।  इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥५- ९॥ 

सार को जानने वाला यही मानता है कि वो कुछ नहीं कर रहा । देखते हुऐ, सुनते हुऐ, छूते हुऐ, सूँघते हुऐ, खाते हुऐ, चलते फिरते हुऐ, सोते हुऐ, साँस लेते हुऐ, बोलते हुऐ, छोड़ते या पकड़े हुऐ, यहाँ तक कि आँखें खोलते या बंद करते हुऐ, अर्थात कुछ भी करते हुऐ, वो इसी भावना से युक्त रहता है कि वो कुछ नहीं कर रहा । वो यही धारण किये रहता है कि इन्द्रियाँ अपने विषयों के साथ वर्त रही हैं ॥


 ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।  लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥ 

कर्मों को ब्रह्म के हवाले कर, संग को त्याग कर जो कार्य करता है, वो पाप मे नहीं लिपता, जैसे कमल का पत्ता पानी में भी गीला नहीं होता ॥


 कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।  योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥ 

योगी, आत्मशुद्धि के लिये, केवल शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से कर्म करते हैं, संग को त्याग कर ॥


 युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।  अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥ 

कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम शान्ति पाता है । लेकिन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है ॥

 सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।  नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥ 

सभी कर्मों को मन से त्याग कर, देही इस नौं दरवाजों के देश मतलब इस शरीर में सुख से बसती है । न वो कुछ करती है और न करवाती है ॥

 न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।  न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥ 

प्रभु, न तो कर्ता होने कि भावना की, और न कर्म की रचना करते हैं । न ही वे कर्म का फल से संयोग कराते हैं । यह सब तो सवयंम के कारण ही होता है ।

 नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।  अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥ 

न भगवान किसी के पाप को ग्रहण करते हैं और न किसी के अच्छे कार्य को । ज्ञान को अज्ञान ढक लेता है, इसिलिये जीव मोहित हो जाते हैं ॥

 ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।  तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥ 

जिन के आत्म मे स्थित अज्ञान को ज्ञान ने नष्ट कर दिया है, वह ज्ञान, सूर्य की तरह, सब प्रकाशित कर देता है ॥

 तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।  गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥५- १७॥ 

ज्ञान द्वारा उनके सभी पाप धुले हुऐ, उसी ज्ञान मे बुद्धि लगाये, उसी मे आत्मा को लगाये, उसी मे श्रद्धा रखते हुऐ, और उसी में डूबे हुऐ, वे ऍसा स्थान प्राप्त करते हैं जिस से फिर लौट कर नहीं आते ॥

 विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।  शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥५- १८॥ 

ज्ञानमंद व्यक्ति एक विद्या विनय संपन्न ब्राह्मण को, गाय को, हाथी को, कुत्ते को और एक नीच व्यक्ति को, इन सभी को समान दृष्टि से देखता है ।

 इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।  निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥५- १९॥ 

जिनका मन समता में स्थित है वे यहीं इस जन्म मृत्यु को जीत लेते हैं । क्योंकि ब्रह्म निर्दोष है और समता पूर्ण है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं ।

 न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।  स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥५- २०॥ 

न प्रिय लगने वाला प्राप्त कर वे प्रसन्न होते हैं, और न अप्रिय लगने वाला प्राप्त करने पर व्यथित होते हैं । स्थिर बुद्धि वाले, मूर्खता से परे, ब्रह्म को जानने वाले, एसे लोग ब्रह्म में ही स्थित हैं ।


 बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् ।  स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥ 

बाहरी स्पर्शों से न जुड़ी आत्मा, अपने आप में ही सुख पाती है । एसी, ब्रह्म योग से युक्त, आत्मा, कभी न अन्त होने वाले निरन्तर सुख का आनन्द लेती है ।


 ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।  आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥ 

बाहरी स्पर्श से उत्तपन्न भोग तो दुख का ही घर हैं । शुरू और अन्त हो जाने वाले ऍसे भोग, हे कौन्तेय, उनमें बुद्धिमान लोग रमा नहीं करते ।


 शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।  कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥ 

यहाँ इस शरीर को त्यागने से पहले ही जो काम और क्रोध से उत्तपन्न वेगों को सहन कर पाले में सफल हो पाये, ऍसा युक्त नर सुखी है ।


 योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।  स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥५- २४॥ 

जिसकी अन्तर आत्मा सुखी है, अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है, और जिसका अन्त करण प्रकाशमयी है, ऍसा योगी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त कर, ब्रह्म में ही समा जाता है ।

 लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।  छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥५- २५॥ 

ॠषी जिनके पाप क्षीण हो चुके हैं, जिनकी द्विन्द्वता छिन्न हो चुकी है, जो संवयम की ही तरह सभी जीवों के हित में रमे हैं, वो ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करते हैं ।


 कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।  अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥५- २६॥ 

काम और क्रोध को त्यागे, साधना करते हुऐ, अपने चित को नियमित किये, आत्मा का ज्ञान जिनहें हो चुका है, वे यहाँ होते हुऐ भी ब्रह्म निर्वाण में ही स्थित हैं ।

 स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।  प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥५- २७॥  यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।  विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥ 

बाहरी स्पर्शों को बाहर कर, अपनी दृष्टि को अन्दर की ओर भ्रुवों के मध्य में लगाये, प्राण और अपान का नासिकाओं में एक सा बहाव कर, इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियमित कर, ऍसा मुनि जो मोक्ष प्राप्ति में ही लगा हुआ है, इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है ।

 भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।  सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥५- २९॥ 

मुझे ही सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महान ईश्वर, और सभी जीवों का सुहृद जान कर वह शान्ति को प्राप्त करता है ।


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

 छटा अध्याय

श्रीभगवानुवाच

 अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।  स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥६- १॥ 

कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी । वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है ।

 यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।  न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥६- २॥ 

जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव । क्योंकि सन्यास अर्थात त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता ।

 आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।  योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥६- ३॥ 

एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन कहा जाता है । योग मे स्थित हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है ।

 यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।  सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥६- ४॥ 

जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर आकर्षित होता है, सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है ।

 उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।  आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥६- ५॥ 

सवयंम से अपना उद्धार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं । मनुष्य सवयंम ही अपना मित्र होता है और सवयंम ही अपना शत्रू ।

 बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।  अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६- ६॥ 

जिसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिये उसका आत्म उसका मित्र है । लेकिन सवयंम पर जीत नही प्राप्त की है उसके लिये उसका आत्म ही शत्रु की तरह वर्तता है ।


 जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।  शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥६- ७॥ 

अपने आत्मन पर जीत प्राप्त किया, सरदी गरमी, सुख दुख तथा मान अपमान में एक सा रहने वाला, प्रसन्न चित्त मनुष्य परमात्मा मे बसता है ।


 ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।  युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥६- ८॥ 

ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-हिल, अपनी इन्द्रीयों पर जीत प्राप्त कीये, इस प्रकार युक्त व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है, जो लोहे, पत्थर और सोने को एक सा देखता है ।

 सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।  साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥६- ९॥ 

जो अपने सुहृद को, मित्र को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, बिचोले को, घृणा करने वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुद्धि से देखता है वह उत्तम है ।

 योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।  एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥६- १०॥ 

योगी को एकान्त स्थान पर स्थित होकर सदा अपनी आत्मा को नियमित करना चाहिये । एकान्त मे इच्छाओं और घर, धन आदि मान्सिक परिग्रहों से रहित हो अपने चित और आत्मा को नियमित करता हुआ ।

 शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।  नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥६- ११॥ 

उसे ऍसे आसन पर बैठना चाहिये जो साफ और पवित्र स्थान पर स्थित हो, स्थिर हो, और जो न ज़्यादा ऊँचा हो और न ज़्यादा नीचा हो, और कपड़े, खाल या कुश नामक घास से बना हो ।

 तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।  उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥६- १२॥ 

वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, चित्त और इन्द्रीयों को अक्रिय कर, उसे आत्म शुद्धि के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये ।

 समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।  सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥६- १३॥ 

अपनी काया, सिर और गर्दन को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ, स्थिर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग की ओर एकाग्रता से देखते हुये, और किसी दिशा में नहीं देखना चाहिये ।

 प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।  मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥ 

प्रसन्न आत्मा, भय मुक्त, ब्रह्मचार्य के व्रत में स्थित, मन को संयमित कर, मुझ मे चित्त लगाये हुऐ, इस प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ ।

 युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।  शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥६- १५॥ 

इस प्रकार योगी सदा अपने आप को नियमित करता हुआ, नियमित मन वाला, मुझ मे स्थित होने ने कारण परम शान्ति और निर्वाण प्राप्त करता है ।

 नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।  न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥६- १६॥ 

हे अर्जुन, न बहुत खाने वाला योग प्राप्त करता है, न वह जो बहुत ही कम खाता है । न वह जो बहुत सोता है और न वह जो जागता ही रहता है ।

 युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।  युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६- १७॥ 

जो नियमित आहार लेता है और नियमित निर-आहार रहता है, नियमित ही कर्म करता है, नियमित ही सोता और जागता है, उसके लिये यह योगा दुखों का अन्त कर देने वाली हो जाती है ।

 यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।  निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥६- १८॥ 

जब सवंयम ही उसका चित्त, बिना हलचल के और सभी कामनाओं से मुक्त, उसकी आत्मा मे विराजमान रहता है, तब उसे युक्त कहा जाता है ।

 यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।  योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥६- १९॥ 

जैसे एक दीपक वायु न होने पर हिलता नहीं है, उसी प्रकार योग द्वारा नियमित किया हुआ योगी का चित्त होता है ।

 यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।  यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥६- २०॥ 

जब उस योगी का चित्त योग द्वारा विषयों से हट जाता है तब वह सवयं अपनी आत्मा को सवयं अपनी आत्मा द्वारा देख तुष्ठ होता है ।

 सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।  वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥६- २१॥ 

वह अत्यन्त सुख जो इन्द्रियों से पार उसकी बुद्धि मे समाता है, उसे देख लेने के बाद योगी उसी मे स्थित रहता है और सार से हिलता नहीं ।

 यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।  यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥६- २२॥ 

तब बड़े से बड़ा लाभ प्राप्त कर लेने पर भी वह उसे अधिक नहीं मानता, और न ही, उस सुख में स्थित, वह भयानक से भयानक दुख से भी विचलित होता है ।

 तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।  स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥६- २३॥ 

दुख से जो जोड़ है उसके इस टुट जाने को ही योग का नाम दिया जाता है । निश्चय कर और पूरे मन से इस योग मे जुटना चाहिये ।

 संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।  मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥६- २४॥ 

शुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग देने का संकल्प कर, मन से सभी इन्द्रियों को हर ओर से रोक कर ।

 शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।  आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥६- २५॥ 

धीरे धीरे बुद्धि की स्थिरता ग्ररण करते हुऐ मन को आत्म मे स्थित कर, कुछ भी नहीं सोचना चाहिये ।

 यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।  ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥६- २६॥ 

जब जब चंचल और अस्थिर मन किसी भी ओर जाये, तब तब उसे नियमित कर अपने वश में कर लेना चाहिये ।


 प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।  उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥६- २७॥ 

ऍसे प्रसन्न चित्त योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है जिसका रजो गुण शान्त हो चुका है, जो पाप मुक्त है और ब्रह्म मे समा चुका है ।


 युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।  सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥६- २८॥ 

अपनी आत्मा को सदा योग मे लगाये, पाप मुक्त हुआ योगी, आसानी से ब्रह्म से स्पर्श होने का अत्यन्त सुख भोगता है ।


 सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।  ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६- २९॥ 

योग से युक्त आत्मा, अपनी आत्मा को सभी जीवों में देखते हुऐ और सभी जीवों मे अपनी आत्मा को देखते हुऐ हर जगह एक सा रहता है ।

 यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।  तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६- ३०॥ 

जो मुझे हर जगह देखता है और हर चीज़ को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं कभी ओझल नहीं होता और न ही वो मेरे लिये ओझल होता है ।

 सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।  सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६- ३१॥ 

सभी भूतों में स्थित मुझे जो अन्नय भाव से स्थित हो कर भजता है, वह सब कुछ करते हुऐ भी मुझ ही में रहता है ।

 आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।  सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥६- ३२॥ 

हे अर्जुन, जो सदा दूसरों के दुख सुख और अपने दुख सुख को एक सा देखता है, वही योगी सबसे परम है ।

अर्जुन उवाच

 योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।  एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥६- ३३॥ 

हे मधुसूदन, जो आपने यह समता भरी योगा बताई है, इसमें मैं स्थिरता नहीं देख पा रहा हूँ, मन की चंचलता के कारण ।


 चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।  तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥६- ३४॥ 

हे कृष्ण, मन तो चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है । उसे रोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त कठिन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना ।


श्रीभगवानुवाच

 असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।  अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥६- ३५॥ 

बेशक, हे महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना कठिन है, लेकिन हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से इसे काबू किया जा सकता है ।

 असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।  वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥६- ३६॥ 

मेरे मत में, आत्म संयम बिना योग प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । लेकिन अपने आप को वश मे कर अभ्यास द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है ।

अर्जुन उवाच

 अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।  अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥६- ३७॥ 

हे कृष्ण, श्रद्धा होते हुए भी जिसका मन योग से हिल जाता है, योग सिद्धि को प्राप्त न कर पाने पर उसको क्या परिणाम होता है ।

 कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।  अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥६- ३८॥ 

क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टूटे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता । हे महाबाहो, अप्रतिष्ठित और ब्रह्म पथ से विमूढ हुआ ।

 एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।  त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥६- ३९॥ 

हे कृष्ण, मेरे इस संशय को आप पूरी तरह मिटा दीजीऐ क्योंकि आप के अलावा और कोई नहीं है जो इस संशय को छेद पाये ।

श्रीभगवानुवाच

 पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।  न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥६- ४०॥ 

हे पार्थ, उसके लिये विनाश न यहाँ है और न कहीं और ही । क्योंकि, हे तात, कल्याण कारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।


 प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।  शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥६- ४१॥ 

योग पथ में भ्रष्ट हुआ मनुष्य, पुन्यवान लोगों के लोकों को प्राप्त कर, वहाँ बहुत समय तक रहता है और फिर पवित्र और श्रीमान घर में जन्म लेता है ।

 अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।  एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥६- ४२॥ 

या फिर वह बुद्धिमान योगियों के घर मे जन्म लेता है । ऍसा जन्म मिलना इस संसार में बहुत मुश्किल है ।

 तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।  यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥६- ४३॥ 

वहाँ उसे अपने पहले वाले जन्म की ही बुद्धि से फिर से संयोग प्राप्त होता है । फिर दोबारा अभ्यास करते हुऐ, हे कुरुनन्दन, वह सिद्धि प्राप्त करता है ।

 पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।  जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥६- ४४॥ 

पुर्व जन्म में किये अभ्यास की तरफ वह बिना वश ही खिच जाता है । क्योंकि योग मे जिज्ञासा रखने वाला भी वेदों से ऊपर उठ जाता है ।

 प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।  अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥६- ४५॥ 

अनेक जन्मों मे किये प्रयत्न से योगी विशुद्ध और पाप मुक्त हो, अन्त में परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।

 तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।  कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥६- ४६॥ 

योगी तपस्वियों से अधिक है, विद्वानों से भी अधिक है, कर्म से जुड़े लोगों से भी अधिक है, इसलिये हे अर्जुन तुम योगी बनो ।

 योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।  श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥६- ४७॥ 

और सभी योगीयों में जो अन्तर आत्मा को मुझ में ही बसा कर श्रद्धा से मुझे याद करता है, वही सबसे उत्तम है ।



॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

 सातवाँ अध्याय

श्रीभगवानुवाच

 मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।  असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥७- १॥ 

मुझ मे लगे मन से, हे पार्थ, मेरा आश्रय लेकर योगाभ्यास करते हुऐ तुम बिना शक के मुझे पूरी तरह कैसे जान जाओगे वह सुनो ।

 ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।  यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥७- २॥ 

मैं तुम्हे ज्ञान और अनुभव के बारे सब बताता हूँ, जिसे जान लेने के बाद और कुछ भी जानने वाला बाकि नहीं रहता ।

 मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।  यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥७- ३॥ 

हजारों मनुष्यों में कोई ही सिद्ध होने के लिये प्रयत्न करता है । और सिद्धि के लिये प्रयत्न करने वालों में भी कोई ही मुझे सार तक जानता है ।

 भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।  अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥७- ४॥ 

भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – यह भिन्न भिन्न आठ रूपों वाली मेरी प्रकृति है ।

 अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।  जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥७- ५॥ 

यह नीचे है । इससे अलग मेरी एक और प्राकृति है जो परम है – जो जीवात्मा का रूप लेकर, हे महाबाहो, इस जगत को धारण करती है ।

 एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।  अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥७- ६॥ 

यह दो ही वह योनि हैं जिससे सभी जीव संभव होते हैं । मैं ही इस संपूर्ण जगत का आरम्भ हूँ औऱ अन्त भी ।

 मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।  मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥७- ७॥ 

मुझे छोड़कर, हे धनंजय, और कुछ भी नहीं है । यह सब मुझ से वैसे पुरा हुआ है जैसे मणियों में धागा पुरा होता है ।

 रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।  प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥७- ८॥ 

मैं पानी का रस हूँ, हे कौन्तेय, चन्द्र और सूर्य की रौशनी हूँ, सभी वेदों में वर्णित ॐ हूँ, और पुरुषों का पौरुष हूँ ।

 पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।  जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥७- ९॥ 

पृथवि की पुन्य सुगन्ध हूँ और अग्नि का तेज हूँ । सभी जीवों का जीवन हूँ, और तप करने वालों का तप हूँ ।

 बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।  बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥७- १०॥ 

हे पार्थ, मुझे तुम सभी जीवों का सनातन बीज जानो । बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ और तेजस्वियों का तेज मैं हूँ ।

 बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।  धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥७- ११॥ 

बलवानों का वह बल जो काम और राग मुक्त हो वह मैं हूँ । प्राणियों में वह इच्छा जो धर्म विरुद्ध न हो वह मैं हूँ हे भारत श्रेष्ठ ।

 ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।  मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥७- १२॥ 

जो भी सत्तव, रजो अथवा तमो गुण से होता है उसे तुम मुझ से ही हुआ जानो, लेकिन मैं उन में नहीं, वे मुझ में हैं ।

 त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।  मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥७- १३॥ 

इन तीन गुणों के भाव से यह सारा जगत मोहित हुआ, मुझ अव्यय और परम को नहीं जानता ।

 दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।  मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥७- १४॥ 

गुणों का रूप धारण की मेरी इस दिव्य माया को पार करना अत्यन्त कठिन है । लेकिन जो मेरी ही शरण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं ।

 न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।  माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥७- १५॥ 

बुरे कर्म करने वाले, मूर्ख, नीच लोग मेरी शरण में नहीं आते । ऍसे दुष्कृत लोग, माया द्वारा जिनका ज्ञान छिन चुका है वे असुर भाव का आश्रय लेते हैं ।

 चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।  आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७- १६॥ 

हे अर्जुन, चार प्रकार के सुकृत लोग मुझे भजते हैं । मुसीबत में जो हैं, जिज्ञासी, धन आदि के इच्छुक, और जो ज्ञानी हैं, हे भरतर्षभ ।

 तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।  प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥७- १७॥ 

उनमें से ज्ञानी ही सदा अनन्य भक्तिभाव से युक्त होकर मुझे भजता हुआ सबसे उत्तम है । ज्ञानी को मैं बहुत प्रिय हूँ और वह भी मुझे वैसे ही प्रिय है ।

 उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।  आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥७- १८॥ 

यह सब ही उदार हैं, लेकिन मेरे मत में ज्ञानी तो मेरा अपना आत्म ही है । क्योंकि मेरी भक्ति भाव से युक्त और मुझ में ही स्थित रह कर वह सबसे उत्तम गति - मुझे, प्राप्त करता है ।

 बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।  वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥७- १९॥ 

बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानमंद मेरी शरण में आता है । वासुदेव ही सब कुछ हैं, इसी भाव में स्थिर महात्मा मिल पाना अत्यन्त कठिन है ।

 कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।  तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥७- २०॥ 

इच्छाओं के कारण जिन का ज्ञान छिन गया है, वे अपने अपने स्वभाव के अनुसार, नीयमों का पालन करते हुऐ अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं ।

 यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।  तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥७- २१॥ 

जो भी मनुष्य जिस जिस देवता की भक्ति और श्रद्धा से अर्चना करने की इच्छा करता है, उसी रूप (देवता) में मैं उसे अचल श्रद्धा प्रदान करता हूँ ।

 स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।  लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥७- २२॥ 

उस देवता के लिये (मेरी ही दी) श्रद्धा से युक्त होकर वह उसकी अराधना करता है और अपनी इच्छा पूर्ती प्राप्त करता है, जो मेरे द्वारा ही निरधारित की गयी होती है ।

 अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।  देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥७- २३॥ 

अल्प बुद्धि वाले लोगों को इस प्रकार प्रप्त हुऐ यह फल अन्तशील हैं । देवताओं का यजन करने वाले देवताओं के पास जाते हैं लेकिन मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त करता है ।

 अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।  परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥७- २४॥ 

मुझ अव्यक्त (अदृश्य) को यह अवतार लेने पर, बुद्धिहीन लोग देहधारी मानते हैं । मेरे परम भाव को अर्थात मुझे नहीं जानते जो की अव्यय (विकार हीन) और परम उत्तम है ।

 नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।  मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥७- २५॥ 

अपनी योग माया से ढका मैं सबको नहीं दिखता हूँ । इस संसार में मूर्ख मुझ अजन्मा और विकार हीन को नहीं जानते ।

 वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।  भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥७- २६॥ 

हे अर्जुन, जो बीत चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, और जो भविष्य में होंगे, उन सभी जीवों को मैं जानता हूँ, लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।

 इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।  सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥७- २७॥ 

हे भारत, इच्छा और द्वेष से उठी द्वन्द्वता से मोहित हो कर, सभी जीव जन्म चक्र में फसे रहते हैं, हे परन्तप ।

 येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।  ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥७- २८॥ 

लेकिन जिनके पापों का अन्त हो गया है, वह पुण्य कर्म करने वाले लोग द्वन्द्वता से निर्मुक्त होकर, दृढ व्रत से मुझे भजते हैं ।

 जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।  ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥७- २९॥ 

बुढापे और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये जो मेरा आश्रय लेते हैं वे उस ब्रह्म को, सारे अध्यात्म को, और संपूर्ण कर्म को जानते हैं ।

 साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।  प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥७- ३०॥ 

वे सभी भूतों में, दैव में, और यज्ञ में मुझे जानते हैं । मृत्युकाल में भी इसी बुद्धि से युक्त चित्त से वे मुझे ही जानते हैं ।


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


 आठवाँ अध्याय

अर्जुन उवाच

 किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।  अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥८- १॥ 

हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, और कर्म क्या होता है । अधिभूत किसे कहते हैं और अधिदैव किसे कहा जाता है ।

 अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।  प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥८- २॥ 

हे मधुसूदन, इस देह में जो अधियज्ञ है वह कौन है । और सदा नियमित चित्त वाले कैसे मृत्युकाल के समय उसे जान जाते हैं ।


श्रीभगवानुवाच

 अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।  भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥८- ३॥ 

जिसका क्षर नहीं होता वह ब्रह्म है । जीवों के परम स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है । जीवों की जिससे उत्पत्ति होती है उसे कर्म कहा जाता है ।

 अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।  अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥८- ४॥ 

इस देह के क्षर भाव को अधिभूत कहा जाता है, और पुरूष अर्थात आत्मा को अधिदैव कहा जाता है । इस देह में मैं अधियज्ञ हूँ - देह धारण करने वालों में सबसे श्रेष्ठ ।

 अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।  यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥८- ५॥ 

अन्तकाल में मुझी को याद करते हुऐ जो देह से मुक्ति पाता है, वह मेरे ही भाव को प्राप्त होता है, इस में कोई संशय नहीं ।

 यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।  तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥८- ६॥ 

प्राणी जो भी स्मरन करते हुऐ अपनी देह त्यागता है, वह उसी को प्राप्त करता है हे कौन्तेय, सदा उन्हीं भावों में रहने के कारण ।

 तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।  मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥८- ७॥ 

इसलिये, हर समय मुझे ही याद करते हुऐ तुम युद्ध करो । अपने मन और बुद्धि को मुझे ही अर्पित करने से, तुम मुझ में ही रहोगे, इस में कोई संशय नहीं ।

 अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।  परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८- ८॥  कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।  सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥८- ९॥ 

हे पार्थ, अभ्यास द्वारा चित्त को योग युक्त कर और अन्य किसी भी विषय का चिन्तन न करते हुऐ, उन पुरातन कवि, सब के अनुशासक, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके धाता, अचिन्त्य रूप, सूर्य के प्रकार प्रकाशमयी, अंधकार से परे उन ईश्वर का ही चिन्तन करते हुऐ, उस दिव्य परम-पुरुष को ही प्राप्त करोगे ।

 प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।  भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥८- १०॥ 

इस देह को त्यागते समय, मन को योग बल से अचल कर और और भक्ति भाव से युक्त हो, भ्रुवों के मध्य में अपने प्राणों को टिका कर जो प्राण त्यागता है वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है ।

 यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।  यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥८- ११॥ 

जिसे वेद को जानने वाले अक्षर कहते हैं, और जिसमें साधक राग मुक्त हो जाने पर प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ती की इच्छा से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्या का पालन करते हैं, तुम्हें मैं उस पद के बारे में बताता हूँ ।

 सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।  मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥८- १२॥  ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।  यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥८- १३॥ 

अपने सभी द्वारों (अर्थात इन्द्रियों) को संयमशील कर, मन और हृदय को निरोद्ध कर (विषयों से निकाल कर), प्राणों को अपने मश्तिष्क में स्थित कर, इस प्रकार योग को धारण करते हुऐ । ॐ से अक्षर ब्रह्म को संबोधित करते हुऐ, और मेरा अनुस्मरन करते हुऐ, जो अपनी देह को त्यजता है, वह परम गति को प्राप्त करता है ।

 अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।  तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८- १४॥ 

अनन्य चित्त से जो मुझे सदा याद करता है, उस नित्य युक्त योगी के लिये मुझे प्राप्त करना आसान है हे पार्थ ।

 मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।  नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥८- १५॥ 

मुझे प्राप्त कर लेने पर महात्माओं को फिर से, दुख का घर और मृत्युरूप, अगला जन्म नहीं लेना पड़ता, क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं ।

 आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।  मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥८- १६॥ 

ब्रह्म से नीचे जितने भी लोक हैं उनमें से किसी को भी प्राप्त करने पर जीव को वापिस लौटना पड़ता है (मृत्यु होती है), लेकिन मुझे प्राप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, फिर दोबारा जन्म नहीं होता ।

 सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।  रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥८- १७॥ 

जो जानते हैं की सहस्र (हज़ार) युग बीत जाने पर ब्रह्म का दिन होता है और सहस्र युगों के अन्त पर ही रात्री होती है, वे लोग दिन और रात को जानते हैं ।

 अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।  रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥८- १८॥ 

दिन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तपन्न होकर व्यक्त (दिखते हैं) होते हैं, और रात्रि के आने पर प्रलय को प्राप्त हो, जिसे अव्यक्त कहा जाता है, उसी में समा जाते हैं ।

 भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।  रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥८- १९॥ 

हे पार्थ, इस प्रकार यह समस्त जीव दिन आने पर बार बार उत्पन्न होते हैं, और रात होने पर बार बार वशहीन ही प्रलय को प्राप्त होते हैं ।

 परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।  यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥८- २०॥ 

इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है, जो सभी जीवों का अन्त होने पर भी नष्ट नहीं होता ।

 अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।  यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥८- २१॥ 

जिसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है, और जिसे परम गति बताया जाता है, जिसे प्राप्त करने पर कोई फिर से नहीं लौटता वही मेरा परम स्थान है ।

 पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।  यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥८- २२॥ 

हे पार्थ, उस परम पुरुष को, जिसमें यह सभी जीव स्थित हैं और जीसमें यह सब कुछ ही बसा हुआ है, तुम अनन्य भक्ति से पा सकते हो ।

 यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।  प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥८- २३॥ 

हे भरतर्षभ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ जिसमें शरीर त्यागते हुऐ योगी लौट कर नहीं आते और जिसमें वे लौट कर आते हैं ।

 अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।  तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥८- २४॥ 

रौशनी में, अग्नि की ज्योति के समीप, दिन के समय, या सुर्य के उत्तर में होने वाले छः महीने (गरमी), उस में जाने वाले ब्रह्म को जानने वाले, ब्रह्म को प्राप्त करते हैं ।

 धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।  तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥८- २५॥ 

धूऐं, रात्रि, अंधकार और सूर्य के दक्षिण में होने वाले छः महीने (सर्दी), उस में योगी चन्द्र की ज्योति को प्राप्त कर पुनः लौटते हैं ।

 शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।  एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥८- २६॥ 

इस जगत में सफेद और काला - ये दो शाश्वत पथ माने जाते हैं । एक पर चलने वाले फिर लौट कर नहीं आते और दूसरे पर चलने वाले फिर लौट कर आते हैं ।

 नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।  तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥८- २७॥ 

हे पार्थ, ऍसा एक भी योगी नहीं है जो इसे जान जाने के बाद फिर कभी मोहित हुआ हो । इसलिये, हे अर्जुन, तुम हर समय योग-युक्त बनो ।

 वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।  अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥८- २८॥ 

इस सब को जान कर, योगी, वेदों, यज्ञों, तप औऱ दान से जो भी पुण्य फल प्राप्त होते हैं उन सब से ऊपर उठकर, पुरातन परम स्थान प्राप्त कर लेता है ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

नौंवा अध्याय

श्रीभगवानुवाच

 इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।  ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥९- १॥ 

मैं तुम्हे इस परम रहस्य के बारे में बताता हूँ क्योंकि तुममें इसके प्रति कोई वैर वहीं है । इसे ज्ञान और अनुभव सहित जान लेने पर तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे ।

 राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।  प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥९- २॥ 

यह विद्या सबसे श्रेष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ रहस्य है, उत्तम से भी उत्तम और पवित्र है, सामने ही दिखने वाली है (टेढी नहीं है), न्याय और अच्छाई से भरी है, अव्यय है और आसानी से इसका पालन किया जा सकता है ।

 अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।  अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥९- ३॥ 

हे परन्तप, इस धर्म में जिन पुरुषों की श्रद्धा नहीं होती, वे मुझे प्राप्त न कर, बार बार इस मृत्यु संसार में जन्म लेते हैं ।

 मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।  मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥९- ४॥ 

मैं इस संपूर्ण जगत में अव्यक्त (जो दिखाई न दे) मूर्ति रुप से विराजित हूँ । सभी जीव मुझ में ही स्थित हैं, मैं उन में नहीं ।

 न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।  भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥९- ५॥ 

लेकिन फिर भी ये जीव मुझ में स्थित नहीं हैं । देखो मेरे योग ऍश्वर्य को, इन जीवों में स्थित न होते हुये भी मैं इन जीवों का पालन हार, और उत्पत्ति कर्ता हूँ ।

 यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।  तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९- ६॥ 

जैसे सदा हर ओर फैले हुये आकाश में वायु चलती रहती है, उसी प्रकार सभी जीव मुझ में स्थित हैं ।

 सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।  कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥९- ७॥ 

हे कौन्तेय, सभी जीव कल्प का अन्त हो जाने पर (1000 युगों के अन्त पर) मेरी ही प्रकृति में समा जाते हैं और फिर कल्प के आरम्भ पर मैं उनकी दोबारा रचना करता हूँ ।

 प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।  भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥ 

इस प्रकार प्रकृति को अपने वश में कर, पुनः पुनः इस संपूर्ण जीव समूह की मैं रचना करता हूँ जो इस प्रकृति के वश में होने के कारण वशहीन हैं ।

 न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।  उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९- ९॥ 

यह कर्म मुझे बांधते नहीं हैं, हे धनंजय, क्योंकि मैं इन कर्मैं को करते हुये भी इनसे उदासीन (जिसे कोई खास मतलब न हो) और संग रहित रहता हूँ ।

 मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।  हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥९- १०॥ 

मेरी अध्यक्षता के नीचे यह प्रकृति इन चर और अचर (चलने वाले और न चलने वाले) जीवों को जन्म देती है । इसी से, हे कौन्तेय, इस जगत का परिवर्तन चक्र चलता है ।

 अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।  परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९- ११॥ 

इस मानुषी तन का आश्रय लेने पर (मानव रुप अवतार लेने पर), जो मूर्ख हैं वे मुझे नहीं पहचानते । मेरे परम भाव को न जानते कि मैं इन सभी भूतों का (संसार और प्राणीयों का) महान् ईश्वर हूँ ।

 मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।  राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥९- १२॥ 

व्यर्थ आशाओं में बँधे, व्यर्थ कर्मों में लगे, व्यर्थ ज्ञानों से जिनका चित्त हरा जा चुका है, वे विमोहित करने वाली राक्षसी और आसुरी प्रकृति का सहारा लेते हैं ।

 महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।  भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥९- १३॥ 

लेकिन महात्मा लोग, हे पार्थ, दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर मुझे ही अव्यय (विकार हीन) और इस संसार का आदि जान कर, अनन्य मन से मुझे भजते हैं ।

 सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।  नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥९- १४॥ 

ऍसे भक्त सदा मेरी प्रशंसा (कीर्ति) करते हुये, मेरे सामने नतमस्तक हो और सदा भक्ति से युक्त हो दृढ व्रत से मेरी उपासने करते हैं ।

 ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।  एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९- १५॥ 

और दूसरे कुछ लोग ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे उपासते हैं । अलग अलग रूपों में एक ही देखते हुये, और इन बहुत से रुपों को ईश्वर का विश्वरूप ही देखते हुये ।

 अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।  मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥९- १६॥ 

मैं क्रतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, स्वधा मैं हूँ, मैं ही औषधी हूँ । मन्त्र मैं हूँ, मैं ही घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और यज्ञ में अर्पित करने का कर्म भी मैं ही हूँ ।

 पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।  वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥९- १७॥ 

मैं इस जगत का पिता हूँ, माता भी, धाता भी और पितामहः (दादा) भी । मैं ही वेद्यं (जिसे जानना चाहिये) हूँ, पवित्र ॐ हूँ, और ऋग, साम, और यजुर भी मैं ही हूँ ।

 गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।  प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥९- १८॥ 

मैं ही गति (परिणाम) हूँ, भर्ता (भरण पोषण करने वाला) हूँ, प्रभु (स्वामी) हूँ, साक्षी हूँ, निवास स्थान हूँ, शरण देने वाला हूँ और सुहृद (मित्र अथवा भला चाहने वाला) हूँ । मैं ही उत्पत्ति हूँ, प्रलय हूँ, आधार (स्थान) हूँ, कोष हूँ । मैं ही विकारहीन अव्यय बीज हूँ ।

 तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।  अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥९- १९॥ 

मैं ही भूमि को (सूर्य रूप से) तपाता हूँ और मैं ही जल को सोक कर वर्षा करता हूँ । मैं अमृत भी हूँ, मृत्यु भी, हे अर्जुन, और मैं ही सत् भी और असत् भी ।

 त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।  ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥९- २०॥ 

तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर) के ज्ञाता, सोम (चन्द्र) रस का पान करने वाले, क्षीण पाप लोग स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से यज्ञों द्वारा मेरा पूजन करते हैं । उन पुण्य कर्मों के फल स्वरूप वे देवताओं के राजा इन्द्र के लोक को प्राप्त कर, देवताओं के दिव्य भोगों का भोग करते हैं ।

 ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।  एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥९- २१॥ 

वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर फिर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं । इस प्रकार कामी (इच्छाओं से भरे) लोग, तीन शीखाओं वाले धर्म (तीन वेदों) का पालन कर, अपनी इच्छाओं को प्राप्त कर बार बार आते जाते हैं ।

 अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।  तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥९- २२॥ 

किसी और का चिन्तन न कर, अनन्य चित्त से जो जन मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य अभियुक्त (सदा मेरी भक्ति से युक्त) लोगों को मैं योग और क्षेम (जो नहीं है उसकी प्राप्ति और जो है उसकी रक्षा - लाभ की प्राप्ति और अलाभ से रक्षा) प्रदान करता हूँ ।

 येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।  तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥९- २३॥ 

जो (अन्य देवताओं के) भक्त अन्य देवताओं का श्रद्धा से पूजन करते हैं, वे भी, हे कौन्तेय, मेरा ही पूजन करते हैं लेकिन अविधि पूर्ण ढँग से ।

 अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।  न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥९- २४॥ 

मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (भोगने वाला) और प्रभु हूँ । वे मुझे सार तक नहीं जानते, इसी लिये वे गिर पड़ते हैं ।

 यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।  भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥९- २५॥ 

देवताओं (के अर्चन) का व्रत रखने वाले देवताओं के पास जाते हैं, पितृ पूजन वाले पितरों को प्राप्त करते हैं, जीवों का पूजन करने वाले जीवों को प्राप्त करते हैं, और मेरी भक्ति करने वाले मुझे ही प्राप्त करते हैं ।

 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।  तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥९- २६॥ 

मेरा भक्त शुद्ध मन से मुझे जो भी पत्ता, फूल, फल अथवा जल अर्पित करता है, उस भक्ति भरे मन से अर्पित की वस्तु को मैं भोगता (स्विकार करता) हूँ ।

 यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।  यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥९- २७॥ 

हे कौन्तेय, तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तप करते हो, वह सब मुझे ही अर्पण कर दो ।

 शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।  संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥९- २८॥ 

इस प्रकार शुभ और अशुभ फलों से और कर्म बन्धन से मुक्ति पा कर, सन्यास (त्याग) और योग युक्त आत्मा द्वारा विमुक्त हो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे ।

 समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।  ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९- २९॥ 

मेरे लिये सभी जीव एक से हैं - न मुझे किसी से द्वेष है और न ही कोई प्रिय है । लेकिन जो भक्ति भाव से मुझे भजते हैं वे मुझ में हैं और मैं उन में हुँ ।

 अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।  साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥९- ३०॥ 

यदि बहुत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है तो उसे साधु पुरूष ही समझना चाहिये क्योंकि उसने उत्तम निर्णय कर लिया है ।

 क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।  कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥९- ३१॥ 

वह जल्द ही धर्मात्मा (सदाचार करने वाला) बन शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है । कौन्तेय, तुम एकदम जानो की मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता ।

 मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।  स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥९- ३२॥ 

हे पार्थ, मेरा ही आश्रय लेकर वे लोग जो पाप योनियों से उत्पन्न हुये हैं, और स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परम गति को प्राप्त कर लेते हैं ।

 किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।  अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥९- ३३॥ 

फिर पुण्य और भक्तिमान ब्राह्मण और राज (क्षत्रिय) ऋषियों की तो बात ही क्या है । इसलिये, इस अनित्य (अन्तशील) और असुखी लोक में जन्म लेने पर मेरी ही भक्ति करो ।

 मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।  मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥९- ३४॥ 

मुझी में अपने मन को लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही पूजन करो, मेरे ही सामने नत् मस्तक हो । इस प्रकार युक्त रहते हुये, मेरे ही ओर लगे हुये तुम मुझे ही प्राप्त करोगे ।



॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

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