Friday, July 18, 2008
जीवन चेतना की विकास यात्रा
जीवन क्या है? इसकी जिज्ञासा अनादि है। जब से मन में विचार अंकुरित हुए, तब से कहीं न कहीं यह जिज्ञासा भी उभरती रही है। इसे शांत करने के लिए न जाने कितने गीत लिखे गए, कथाएं कही गई। अनेक दार्शनिक एवं वैज्ञानिक शोध अनुसंधान भी हुए। लेकिन परिवर्तित काल क्रम में यह जिज्ञासा मिट नहीं पाई। गढी गई परिभाषाएं इसकी तुलना में बौनी साबित हुई और कइयों ने तो यह भी मान लिया कि जिस जिज्ञासा को पूरा करने के लिए अनवरत संघर्ष किया जाता है, वही जीवन है। इसमें यथार्थ भी है। भला अनवरत, अविराम संघर्ष के अलावा और किसे जीवन कहेंगे!
बात जब संघर्ष की चले, तो यह पूछना भी वाजिब है कि यह संघर्ष किसके लिए तथा किस ओर? असली संघर्ष जीने के लिए ही है। सच तो यह है कि इस संघर्ष से कोई भी बच नहीं सकता। जगत को निहारें, तो दिखाई यही देता है कि प्रत्येक जीव में जीने की एक कुदरती इच्छा विद्यमान रहती है। किसी छोटे से छोटे जीव को भी यदि कोई मारने की कोशिश करता है, तो वह भी बचने का भरपूर प्रयास करता है। मरना वह भी नहीं चाहता। उसकी भी कोशिश जीने की होती है। चेतना का विकसित रूप संघर्ष की फलश्रुति है। मानव चेतना की कहानी सुनने पर यह सचाई सामने आती है।
इनसान कौन है, वह कब आया इस धरती पर? इन सवालों के जवाब में दर्शन एवं विज्ञान दोनों यही कहते हैं कि यदि विकास की बात छोडकर उम्र की बात करें, तो इनसान सभी जीवों-वनस्पतियों से छोटा है। इनसानी जिंदगी की कहानी तो कुछ हजार-लाख साल की है, जबकि धरती पर जीवन तो करोडों-अरबों सालों से चल रहा है। विज्ञान के जानकार बताते हैं कि आज से कुछ सहस्त्र साल पहले मानव नाम का प्राणी अपने वर्तमान स्वरूप में था ही नहीं। मानव की विकास कथा, उसकी चेतना के विकसित होने की बात जीवों के विकास की सुदीर्घ श्रृंखला की एक कडी है। धरती के कोने-कोने से पाए गए जीवाश्मों के अध्ययन से पता चला है कि डायनासोरनाम का एक विशालकाय जीव कुछ करोड साल पहले धरती पर रहा करता था। हालांकि यह जीव अब पूरी तरह लुप्त हो चुका है। धरती पर प्राप्त हुए तमाम मानवीय सभ्यताओं के अवशेष मात्र कुछ लाख साल की ही कहानी कह पाए हैं। मानव जीवन का धरती पर उदय जीवन के विकास की श्रृंखला का ही परिणाम है। अनवरत व अविराम संघर्ष करते रहे जीवन ने ही क्रमिक रूप से चेतना के उच्च आयाम पाए हैं।
सतत संघर्ष से ही सभ्यताएं विकसित हो पाई हैं। इस अविराम संघर्ष कथा में जीवन की सच्ची परिभाषा छिपी है। संघर्ष ने मनुष्य के जीवन को गढा है। यहां तक कि सभ्यता एवं संस्कृति उसके जीवन का अटूट हिस्सा बनती चली गई। कई बार तो सभ्यता को ही जीवन समझने का भ्रम भी हुआ, जबकि सभ्यता और जीवन दोनों अलग बातें हैं। सभ्यता को जीवन का अंग जरूर माना जा सकता है, पर संपूर्ण जीवन नहीं। सही-गलत के फेर में भारी झगडे हुए हैं। इस सही-गलत के सच की गहराई में जाएं, तो बात सिर्फ इतनी है कि यह सब कुछ देश, काल, परिस्थिति पर निर्भर रहा है। अंधी परंपराओं ने विवेकशील मनुष्य को अविवेकशीलबनाया। दरअसल, मानव जीवन के इतिहास में ऐसे अनेक दौर आए, जब सभ्यताओं के परस्पर संघर्ष में जीवन की तस्वीर ही धुंधली हो गई। इतिहास गवाह है कि ऐसा तब-तब हुआ, जब संघर्ष की दिशा भटकी। इस भटकावके साथ ही जीवन अर्थ-शूून्य होने लगा और गढी गई सार्थक परिभाषाएं ढहने-मिटने लगीं। प्रभुता को पाने की चाहत में मनुष्य प्रभुता से दूर ही हुआ है। जिन्होंने भी जीवन को समझा, उन्होंने बार-बार इस बारे में चेताया भी, परंतु अहंकार के उन्माद ने हर बार की चेतावनी को अनसुना कर दिया। प्रलय की आंधियों में जीवन को कई आघात लगे हैं। ऐसे में महा-आश्चर्य यही हुआ है कि जीवन हर बार नए रूप में सामने आया है। हर बार उसने संघर्ष के भटकावको दूर करने की कोशिश की है। बार-बार यही साबित हुआ है कि जीवन क्षणभंगुर है।
प्रभुता, धन-दौलत, जमीन-जायदाद, यश-प्रसिद्धि, शोहरत सब के सब यहीं धरे रह जाते हैं। शरीर मिटने के साथ सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। बचती है तो सिर्फ चेतना, जिसे अभी विकास के नए सोपान चढने हैं। अपने को और अधिक प्रकाशपूर्णबनाना है।
अपने अहंकार को ही जीवन की परिभाषा मानने वालों के लिए यह बात दु:खद होते हुए भी एक चेतावनी है, सबक है। मानो या न मानो, सच यही है कि इससे आपकी प्रभुता नष्ट होती है। प्रकृति का हर रूप नष्ट होता है। हर आकार में विकास को घुन लगता है। बचता है तो परमात्मा, जो अदृश्य रहकर भी हमेशा बना रहता है। जागरूकता पूरी हो, तो जीवन की प्रत्येक घटना, फिर भले ही वह भली हो या बुरी एक अनोखी सार्थकता देने वाली होती है। प्रत्येक कदम जीवन चेतना में नया प्रकाश उडेलता है। पवित्रता एवं प्रकाश की पूर्णता में यह अनुभव होता है कि जीवन चेतना की विकास यात्रा है। जो भी इस यात्रा-पथ पर कुशलता से चल रहे हैं, वही सच्चे अर्थाे में जिंदगी जी रहे हैं। वह सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं।