Wednesday, July 2, 2008

असहिष्णुता की पराकाष्ठा


अपने देश में इधर सहिष्णुता और सामाजिक सद्भाव में तेजी से गिरावट आती दिख रही है। कश्मीर घाटी में अमरनाथ के यात्रियों के लिए अस्थाई शिविर बनाने के उद्देश्य से राज्य सरकार द्वारा आवंटित की गई महज 50 हेक्टेयर भूमि को लेकर वहां का मुस्लिम नेतृत्व जिस तरह हिंसा के रास्ते पर चल निकला उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह की आवश्यकता मुंबई में बाबा राम रहीम के अंगरक्षकों की गोलीबारी में एक युवक की मौत के बाद देश के अनेक हिस्सों में सिखों के विरोध प्रदर्शन की भी नहीं थी, लेकिन उक्त घटना के विरोध में देश में जगह-जगह पर तोड़फोड़ के साथ सड़क एवं रेल मार्ग अवरुद्ध किया गया। इन दोनों घटनाओं ने इसलिए गंभीर रूप लिया, क्योंकि नेताओं ने लोगों को भड़काया।

कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों को राहत देने के लिए अस्थायी शिविर बनाने हेतु जमीन आवंटन की बातचीत उस समय से चल रही थी जब सत्ता मुफ्ती मुहम्मद सईद के हाथों में थी। कुछ समय पहले गुलाम नबी आजाद सरकार ने इस भूमि का आवंटन कर दिया। इस फैसले में सईद के दल पीडीपी के वरिष्ठ नेता और उप मुख्यमंत्री भी शामिल थे, लेकिन अब वह कह रहे है कि उन्हे धोखे में रखकर यह फैसला किया गया। पीडीपी ने इस फैसले को रद्द करने के लिए अपनी ही सरकार गिराने की धमकी पर अमल भी कर दिखाया। यह और कुछ नहीं राष्ट्रविरोधी राजनीति है। अमरनाथ यात्रियों के अस्थायी शिविरों के निर्माण के लिए आवंटित भूमि के संदर्भ में यह अफवाह उड़ाई जा रही है कि केंद्र यहां हिंदुओं को बसाना चाहता है,ताकि कश्मीर में मुस्लिम अल्पसंख्यक हो जाएं। कश्मीर के जो भी नेता इस अफवाह को हवा देकर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे है वे एक तरह से देश विरोधी कार्य कर रहे है।

कश्मीर घाटी में वर्षो से चले आ रहे आतंकवाद ने वहां के हिंदुओं को पलायन के लिए मजबूर किया। इस पलायन पर वहां के राजनीतिक दल मूकदर्शक बने रहे। यद्यपि कश्मीर घाटी से हिंदुओं के पलायन को कश्मीरियत का नुकसान बताया जाता है, लेकिन आज यह देखने से इनकार किया जा रहा है कि आखिर अमरनाथ यात्रा भी तो कश्मीरियत का एक हिस्सा है। आखिर कौन नहीं जानता कि वर्ष 2000 तक अमरनाथ की गुफा का नियंत्रण एक मुस्लिम परिवार के हाथ में ही था? आज भी कश्मीरी मुसलमानों के सहयोग के बगैर अमरनाथ यात्रा संभव नहीं। इस यात्रा में श्रद्धालुओं को खराब मौसम के कारण तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हे इन कठिनाईयों से बचाने के लिए अगर वहां अस्थायी शिविर बनाने के लिए जमीन आवंटित की गई तो इस पर हाय-तौबा मचाने का क्या औचित्य? आखिर कश्मीर घाटी में जमीन की इतनी कमी भी नहीं है। जो जमीन अस्थायी शिविरों के लिए आवंटित हुई है वह बंजर भूमि है। यह समझना कठिन है कि कश्मीर घाटी के मुसलमानों ने किस आधार पर यह मान लिया कि अमरनाथ यात्रियों के लिए अस्थायी शिविर बनने से वहां का मुस्लिम चरित्र बदल जाएगा? यदि एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि वहां कुछ हिंदू बस भी जाते है तो क्या यह कोई अपराध होगा? क्या देश के अन्य हिस्सों में हिंदू और मुस्लिम साथ-साथ नहीं रहते? क्या कारण है कि कश्मीर के मुस्लिम अमरनाथ यात्रियों को चंद दिनों तक अस्थायी शिविरों में रहने की इजाजत देने के लिए भी तैयार नहीं? चंद वोटों के लिए देश की राजनीति कितनी अधिक गिर सकती है, इसका प्रमाण है कश्मीर घाटी में यह दुष्प्रचार कि यहां पर सिर्फ मुसलमानों का ही एकाधिकार है।

कश्मीर में जिस तरह हिंसा भड़की वह अनेक हिंदू संगठनों के गले नहीं उतर रही। विश्व हिंदू परिषद ने इस मुद्दे पर गंभीर परिणामों की चेतावनी दी है। इस तरह की चेतावनियां सामाजिक सद्भाव पर बुरा असर डाल सकती है। यदि कश्मीर के नेताओं और वहां की जनता के दबाव में अस्थायी शिविरों के लिए दी गई भूमि का आवंटन रद्द होता है तो यह कश्मीरियत के लिए एक कलंक होगा। आश्चर्य है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर की अपनी सरकार को कोई सुझाव देने का भी साहस नहीं जुटा पाई। कश्मीर की घटनाओं पर उसकी चुप्पी यही दर्शाती है कि वह मुसलिम वोटों के जरिये चुनावी नैया पार लगाना चाहती है और उसे हिंदुओं की भावनाओं की कोई परवाह नहीं। ऐसे में कश्मीर घाटी के मुसलमानों को चाहिए कि वे खुद के असहिष्णु होने का प्रमाण न दें और सामाजिक सद्भाव के बारे में विचार करे। उन्हे ऐसे नेताओं का बहिष्कार करना चाहिए जो राजनीतिक लाभ के लिए दोनों समुदायों को विभाजित कर रहे है। देखना यह है कि वे ऐसा करते है या नहीं?

देखने की बात यह भी है कि मुंबई में सिख युवक की मौत के बाद सिख समाज देश के विभिन्न हिस्सों में जो विरोध प्रदर्शन कर रहा है उस पर विराम लगाता है या नहीं? सिख संगठन बार-बार यह मांग कर रहे है कि उक्त घटना के लिए बाबा राम रहीम को गिरफ्तार किया जाए। ऐसी मांग करने वाले यह भूल रहे है कि सिख युवक की मौत बाबा राम रहीम के अंगरक्षकों से हुई है और उनके खिलाफ आवश्यक कानूनी कार्रवाई की जा रही है। इस घटना की उच्च स्तरीय जांच के आदेश भी दे दिए गए है। आखिर सिख समाज यह क्यों चाह रहा है कि इस घटना की जांच और कार्रवाई उसके हिसाब से हो? नि:संदेह सिख समाज के धरना-प्रदर्शन के पीछे संकीर्ण राजनीति काम कर रही है, जिसकी जड़ें दो वर्ष पूर्व हुए चुनाव के दौरान गहरी हुई थीं। उस समय बाबा राम रहीम ने अकालियों का साथ न देकर कांग्रेस का साथ देना मंजूर किया था। उसके बाद बाबा द्वारा खुद को सिख गुरू के रूप में प्रदर्शित करने की जो भूल की गई उसका अकाली दल ने जमकर राजनीतिक लाभ उठाया। अब अकाली बाबा को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। यह बात और है कि वह अपनी भूल के लिए माफी मांग चुके हैं। यद्यपि बाबा राम रहीम स्वयं को विवादों से दूर नहीं रख पा रहे हैं, लेकिन उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई देश के कानून के हिसाब से ही हो सकती है। क्या सिख समाज को देश के कानून और न्यायपालिका पर भरोसा नही, जो वह धरना-प्रदर्शन पर उतर आया? बेहतर हो कि सिख समाज का नेतृत्व करने वाले लोग बाबा राम रहीम के साथ अपने विवाद बातचीत के जरिये हल करने की कोशिश करे और साथ ही वे आम सिखों को संयम का परिचय देने के लिए भी प्रेरित करें।

चूंकि उपरोक्त दोनों घटनाएं असहिष्णुता के साथ-साथ राजनीति में गिरावट की ओर भी संकेत करती है इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे प्रयास किए जाएं जिससे भविष्य में वह सब कुछ न हो सके जो इन दिनों हो रहा है। कम से कम संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़काने की इजाजत तो किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए। अब तो भारतीय समाज को राजनेताओं की स्वार्थी और भड़काऊ राजनीति से परिचित हो जाना चाहिए, लेकिन पता नहीं क्यों वह यह साधारण सी बात समझने से इनकार कर रहा है कि राजनेता तरह-तरह से जातिगत, संप्रदायगत, क्षेत्रगत भावनाएं भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते है? नि:संदेह समाज का संवेदनशील होना एक अच्छी बात है, लेकिन यदि उसके विभिन्न वर्ग एक दूसरे के प्रति सहिष्णु नहीं होंगे तो स्वार्थपरता बढ़ेगी और बिखराव एवं अलगाव की लपटें इसी तरह समाज को त्रस्त करती रहेंगी।


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